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Shri Guru Arjan Dev Ji

शहीदों का सिरताज

आपे हरि इक रंगु है आपे बहु रंगी ॥
जो तिसु भावै नानका साई गल चंगी ॥

(Shri Guru Granth Saheb : Ang 726)

गुरुवाणी की कई रचनाएं करने वाले गुरु अर्जन देव ने गुरु ग्रंथ साहिब के संपादन में अहम योगदान दिया है.
करतारपुर सहित कई नगरों की स्थापना करने वाले गुरु अर्जन देव को क्रूर यातना का भी सामना करना पड़ा था.

बचपन से ही थे बहुभाषी, गुरुमुखी के साथ फारसी-संस्कृत का भी ज्ञान

गुरु अर्जन देव का जन्म 15 अप्रैल 1563 ईस्वी को गुरु रामदास और बीबी भानी के घर गोइंदवाल में हुआ था. इनके पिता गुरु रामदास जी सिख धर्म के चौथे गुरु थे. अर्जन देव अपने पिता के तीसरे और सबसे छोटे बेटे थे. ये बचपन से ही बुद्धिमान थे, इन्होंने बाबा बुड्ढा से गुरुमुखी का ज्ञान प्राप्त किया था. इसके साथ-साथ इन्होंने फारसी और संस्कृत भाषा की शिक्षा भी ग्रहण की थी.

अर्जन देव का धर्म के प्रति समर्पण, निर्मल हृदय और कर्तव्य निष्ठा को देखकर 1581 ईस्वी में उन्हें उनके पिता ने पांचवें गुरु के रुप में गद्दी दी थी.

गुरु अर्जन देव ने कई कठिनाईयों और विरोधों के बावजूद भी 25 वर्षों तक गद्दी संभालते हुए, सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए काफी कुछ किया था.

पिता ने बसाया “अमृतसर”, तो बेटे बनाया स्वर्ण मंदिर
गुरु अर्जन देव के पिता गुरु रामदास जी ने रामदासपुरा नामक नगर की स्थापना की थी. जिसे अब अमृतसर के नाम से जाना जाता है. इनके पिता ने अमृतसर और संतोखसर नामक दो सरोवरों का निर्माण कार्य शुरु किया था, जिसे गुरु अर्जन देव ने ही पूरा करवाया था. अर्जन देव जी ने अमृतसर सरोवर के बीच एक धर्मसाल का निर्माण करवाया था, जिसका नाम हरिमंदिर रखा गया. इसी हरिमंदिर को स्वर्ण मंदिर के नाम से जाना जाता है.

अर्जन देव जी ने हरमंदिर साहिब नामक गुरुद्वारे की नींव 1588 ईस्वी में लाहौर के प्रसिद्ध सूफी संत मीयां मीर जी से रखवाई थी. ऐसा माना जाता है कि सैकड़ों वर्ष पुराने इस गुरुद्वारे का नक्शा खुद गुरु अर्जन देव जी ने तैयार किया था.
1604 ईस्वी में हरिमंदिर साहिब में आदि ग्रंथ साहिब का प्रकाश किया गया और बाबा बुड्ढा जी को इसका पहला ग्रंथी नियुक्त किया गया.

गुरुओं की बाणी सहेजने के लिए सरोवर के पास एंकात में संपादित की आदि ग्रंथ साहिब
गुरु अर्जुन देव का जब कार्यकाल शुरू हुआ था, तब तक सिख धर्म के लिए काफी काम हो चुका था. गुरुओं ने काफी मात्रा में बाणी की रचना कर ली थी. इन्हीं बाणियों को सहेजने के लिए गुरु अर्जन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से आदि ग्रंथ साहिब, जिसे गुरु ग्रंथ साहिब भी कहा जाता है, का संपादन किया. गुरु अर्जन देव खुद बोल कर गुरदास जी से इसे लिखवाया था. संपादन का यह कार्य अमृतसर के रामसर सरोवर के किनारे बैठकर एकांत में किया गया था. संकलन और संपादन का यह कार्य 1603 में शुरू होकर 1604 ईस्वी में पूरा हुआ था.

आदि ग्रंथ साहिब में सिख गुरुओं के अलावा अन्य सूफी संतों के ज्ञान का भी समावेश किया गया था.
गुरु अर्जुन देव जी ने 30 बड़े रागों में लगभग 2,218 शब्दों की रचना की है.
गुरु अर्जुन देव ने इसमें बिना कोई भेदभाव किए तमाम विद्वानों और भगतों की बाणी शामिल करते हुए श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का संपादन का काम किया.

रागों के आधार पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित बाणियों का वर्गीकरण किया था.
गुरु अर्जन देव जी ने 1604 में दरबार साहिब में पहली बार गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश किया था. 1430 अंग (पन्ने) वाले इस ग्रंथ के पहले प्रकाश पर बाबा बुड्ढा ने बाणी पढ़ने की शुरुआत की थी.
पहली पातशाही से छठी पातशाही तक अपना जीवन सिख धर्म की सेवा को समर्पित करने वाले बाबा बुड्ढा जी इस ग्रंथ के पहले ग्रंथी बने.

मसंद प्रथा के विकास के लिए शुरु की “दसवंध” परंपरा
गुरु अर्जन देव जी ने सिखों में दसवंध (अपनी कमाई का दसवां हिस्सा) निकालने की परंपरा शुरू की ताकि लंगर और दूसरे सभी धार्मिक व सामाजिक काम चलाए जा सकें. इसके लिए विभिन्न केंद्रों पर प्रतिनिधि नियुक्त किए गए, जिन्हें मसंद कहा जाता था.

नगरों की स्थापना, जलापूर्ति के लिए भी किए कार्य
गुरु अर्जन देव जी ने नए नगरों की स्थापना करने के साथ-साथ लोगों की समस्याओं को देखते हुए जलापूर्ति के लिए विभिन्न निर्माण करवाए थे.

1590 में गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर से 20 किमी दूर तरनतारन नामक सरोवर बनावाया था, जिस कारण इस नगर का नाम तरनतारन पड़ गया.
1593 में इन्होंने जालंधर के निकट करतारपुर नगर की स्थापना की और गंगसर सरोवर का निर्माण करवाया.
1595 में पुत्र हरगोबिंद के जन्म की खुशी में व्यास नदी के किनारे हरगोविंदपुर बसाया.
1599 में लाहौर यात्रा के दौरान गुरु अर्जन देव जी ने डब्बी बाजार में एक बाउली का निर्माण करवाया था, जिससे स्थानीय क्षेत्रों में पानी की कमी को पूरा किया जा सके.

जहांगीर ने गिफ्तार करवा दीं कई यातनाएं, यहीं से कहलाए शहीदों के “सरताज”
अकबर की मौत के जहांगीर मुगल साम्राज्य का शासक बना. उसी दौरान जहांगीर के बेटे खुसरो ने बगावत कर दी थी, जिसके बाद उसके पिता ने उसे गिरफ्तार करने के आदेश दिए, गिरफ्तारी के डर से खुसरो पंजाब की ओर भागा और तरनतारन में गुरु अर्जन देव जी के पास पहुंचा. गुरु जी ने उसका स्वागत और सहयोग किया, यह बात जहांगीर को चुभ गई. इसके साथ ही जहांगीर अर्जन देव की प्रसिद्ध को भी पसंद नहीं करता था. वहीं, इस मौके को कुछ अन्य विरोधियों ने भुनाते हुए, जहांगीर की आग में घी डालने का काम किया, जिसके बाद जहांगीर ने मौका देख गुरु अर्जन देव पर उल्टे-सीधे आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया.

जहांगीर ने अर्जन देव को अपनी मर्जी के कार्य करवाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने झूठ और अन्याय का साथ देने से इनकार कर दिया और शहादत को चुना.
इसके बाद जहांगीर ने उन्हें शहीद करने का हुकम दिया और लाहौर में कई यातनाएं दीं. उन्हें गर्म तवे पर बैठाया गया और उनके ऊपर गर्म रेत डाली गई. इसके अलावा उन्हें और भी कई तरह के कष्ट दिए गए.
30 मई 1606 को अर्जन देव जी शहीद हो गए. इसके बाद उनकी याद में रावी नदी के किनारे पर ही गुरुद्वारा डेरा साहिब बनवाया गया था, जो वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित है.

सिख परंपरा के मुताबिक, गुरु अर्जन जी को शहीदों का सिरताज कहा जाता है. वह सिख धर्म के पहले शहीद थे.

 

मन का दर्पण

हलतु पलतु दुइ लेहु सवारि ॥ राम नामु अंतरि उरि धारि ॥
पूरे गुर की पूरी दीखिआ ॥ जिसु मनि बसै तिसु साचु परीखिआ ॥

एक गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्य की सेवा से बहुत प्रभावित हुए । विद्या पूरी होने के बाद जब शिष्य विदा होने लगा तो गुरू ने उसे आशीर्वाद के रूप में एक दर्पण दिया ।

वह साधारण दर्पण नहीं था । उस दिव्य दर्पण में किसी भी व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी ।

शिष्य, गुरू के इस आशीर्वाद से बड़ा प्रसन्न था । उसने सोचा कि चलने से पहले क्यों न दर्पण की क्षमता की जांच कर ली जाए ।

परीक्षा लेने की जल्दबाजी में उसने दर्पण का मुंह सबसे पहले गुरुजी के सामने कर दिया ।

शिष्य को तो सदमा लग गया । दर्पण यह दर्शा रहा था कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण स्पष्ट नजर आ रहे है

मेरे आदर्श, मेरे गुरूजी इतने अवगुणों से भरे है ! यह सोचकर वह बहुत दुखी हुआ. दुखी मन से वह दर्पण लेकर गुरुकुल से रवाना हो गया तो हो गया लेकिन रास्ते भर मन में एक ही बात चलती रही. जिन गुरुजी को समस्त दुर्गुणों से रहित एक आदर्श पुरूष समझता था लेकिन दर्पण ने तो कुछ और ही बता दिया ।

उसके हाथ में दूसरों को परखने का यंत्र आ गया था । इसलिए उसे जो मिलता उसकी परीक्षा ले लेता ।

उसने अपने कई इष्ट मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर उनकी परीक्षा ली । सब के हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया ।

जो भी अनुभव रहा सब दुखी करने वाला वह सोचता जा रहा था कि संसार में सब इतने बुरे क्यों हो गए है । सब दोहरी मानसिकता वाले लोग है ।

जो दिखते हैं दरअसल वे हैं नहीं । इन्हीं निराशा से भरे विचारों में डूबा दुखी मन से वह किसी तरह घर तक पहुंच गया ।

उसे अपने माता-पिता का ध्यान आया । उसके पिता की तो समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है । उसकी माता को तो लोग साक्षात देवतुल्य ही कहते है । इनकी परीक्षा की जाए ।

उसने उस दर्पण से माता-पिता की भी परीक्षा कर ली । उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा । ये भी दुर्गुणों से पूरी तरह मुक्त नहीं है । संसार सारा मिथ्या पर चल रहा है ।

अब उस बालक के मन की बेचैनी सहन के बाहर हो चुकी थी ।

उसने दर्पण उठाया और चल दिया गुरुकुल की ओर । शीघ्रता से पहुंचा और सीधा जाकर अपने गुरूजी के सामने खड़ा हो गया ।

गुरुजी उसके मन की बेचैनी देखकर सारी बात का अंदाजा लगा चुके थे ।

चेले ने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा- गुरुदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में तरह-तरह के दोष है । कोई भी दोषरहित सज्जन मुझे अभी तक क्यों नहीं दिखा ?

क्षमा के साथ कहता हूं कि स्वयं आपमें और अपने माता-पिता में मैंने दोषों का भंडार देखा । इससे मेरा मन बड़ा व्याकुल है ।

तब गुरुजी हंसे और उन्होंने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया । शिष्य दंग रह गया । उसके मन के प्रत्येक कोने में राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण भरे पड़े थे । ऐसा कोई कोना ही न था जो निर्मल हो ।

गुरुजी बोले- बेटा यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था न कि दूसरों के दुर्गुण खोजने के लिए ।

जितना समय तुमने दूसरों के दुर्गुण देखने में लगाया उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता

मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह दूसरों के दुर्गुण जानने में ज्यादा रुचि रखता है । स्वयं को सुधारने के बारे में नहीं सोचता । इस दर्पण की यही सीख है जो तुम नहीं समझ सके ।

कितनी बड़ी बात कही उन्होंने । बेशक संसार में दुर्गुणों की भरमार है परंतु हममें भी कम अवगुण तो नहीं है । किसी और में दोष खोजने से बड़ा अवगुण क्या है ।

यदि हम स्वयं में थोड़ा-थोड़ा करके सुधार करने लगें तो हमारा व्यक्तित्व परिवर्तित हो जाएगा ।

ईश्वर को नहीं जानने का अंधेरा मिटाए ईश्वर को जना कर वो होता है गुरु, ध्यान दीजिएगा जानना ना की मानना।

१. पूर्ण गुरु वो होता है वो आपके अंतर में उस ईश्वर रूपी प्रकाश को प्रकट कर दे। आपके दिव्य चक्षु खोल दे और तत्क्षण ईश्वर के दर्शन करवाए।

२. पूर्ण गुरु आपको ईश्वर का नाद बिना बाहरी कानो के सुनवाएगा

३. श्वास में नाम की माला प्रकट करेगा।

५. आपको अंतर के अमृत से जोड़ देगा।

इसलिए कहा भी गया है –

चार पदार्थ जे को मांगे साध जना की सेवा लागे।

चार ग्रंथ भी इन्हीं चारों का बखान करते हैं।

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार वरनौ रघुबर विमल जसू जो दायक फल चार।

प्रभु से प्रार्थना है आपकी आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो।

विनम्रता

मन अपुने ते बुरा मिटाना ॥ पेखै सगल स्रिसटि साजना ॥
सूख दूख जन सम द्रिसटेता ॥ नानक पाप पुंन नही लेपा ॥

विनम्रता से आप किसी के भी सामने जीत सकते हो। कुछ लोग ऊँची मंजिल हासिल कर लेने के बाद अपने अहंकार की वजह से फिर से निचे आ जाते है।

एक बार नदी ने समुद्र से अहंकार से कहा की बताओ पानी के प्रचंड वेग से में तुम्हारे लिए क्या बहा कर लाउ? तुम चाहो तो में पहाड़ , मकान , पेड़ , पशु, मानव आदि सभी को जड़ से उखाड़कर ला सकती हु।

समुद्र समज गया की नदी को अहंकार आ गया है। उसने कहा यदि मेरे लिए कुछ लाना ही चाहती हो तो थोड़ी सी घास उखाड़कर लेकर आना। समुद्र की बात सुनकर नदी हंसी और कहा बस इतनी सी बात अभी आपकी सेवा में हाजिर कर देती हु।

नदी ने अपने पानी का प्रचंड प्रवाह घास उखाड़ने के लिए लगाया। किन्तु घास नहीं उखड़ी। नदी ने हार नहीं मानी और वह बार – बार अपने वेग से प्रयत्न करती रही किन्तु वह घास को उखाड़ने में सक्षम नहीं रही।

नदी को सफलता नहीं मिली और थकी हारी निराश नदी समुद्र के पास पहोची और अपना शिर झुकाकर कहने लगी में मकान, पेड़ , पहाड़ , पशु , मानव आदि बहाकर ला सकती हु किन्तु घास उखाड़कर नहीं ला सकी, क्योकि जब भी मेने प्रचंड वेग से घास पर प्रहार किया तो घास ने झुककर अपने आप को बचा लिया और में ऊपर से खाली हाथ निकल आयी।

नदी की बात सुनकर समुद्र ने मुस्कुराते हुए कहा जो कठोर है , अड़ियल है और अहंकारी है , वे आसानी से उखड जाते है। लेकिन जिसने घास जैसी विनम्रता सिख ली हो उसे प्रचंड वेग भी नष्ट नहीं कर सकता।

जो परिस्थिति के अनुसार आसानी से अपने आप को ढाल लेता है वह टूटता नहीं है और विनम्रता से आप सभी से जित सकता है। ऊँची से ऊँची मंजिल हासिल कर लेने के बाद भी अहंकार से दूर रहकर विनम्र बने रहना चाहिए।

कई बार इंसान जब किसी ऊँचे स्थान पर पहुंच जाता है उसके बाद वह सभी के साथ अहंकार से बर्तता है। लेकिन ऐसा करने से उसे नहीं पता की वो भी एक न एक दिन मकान, पेड़ , पहाड़ , पशु , मानव आदि की तरह नष्ट हो ही जाएगा। जिसके पास घास जैसी विनम्रता हो वही आसानी से अपने आप को बचा सकता है। इसलिए हमें हमेशा विनम्र बने रहना चाहिए।

खरगोश और चूहा

सो पंडितु जो मनु परबोधै ॥ राम नामु आतम महि सोधै ॥
राम नाम सारु रसु पीवै ॥ उसु पंडित कै उपदेसि जगु जीवै ॥

प्रकृति ने हर जीव को अपनी खासियतों और गुणों से सजाया है। ये बात को हमें समजना चाहिए।

बहुत पुराने समय की बात है, एक जंगल में एक खरगोश और उसका परिवार निवास करते थे। जंगल में अन्य बड़े जानवर भी रहते थे, खरगोश और उनका परिवार हमेशा यह डर में रहते थे कि कहीं कोई जानवर आकर उन्हें कुछ नुकसान न पहुंचा दे।

उन्हें हमेशा आस-पास की आवाजों से सतर्क रहना पसंद था, और तब ही वे त्वरिततः अपने गुफा में छुप जाते थे।खरगोश इस परिस्थिति से बेहद परेशान थे।

एक दिन, एक बड़ा घोड़ों का समूह उनके बिल के पास से गुजर रहा था। घोड़ों की आवाज सुनकर सभी खरगोश डर से चौंक गए और वे बिल के अंदर छुप गए। पूरे दिन के लिए उनमें से किसी ने बिल से बाहर जाने का नाम नहीं लिया।

उनका डर इतना गहरा था कि वे खाने की तलाश में बाहर नहीं निकले। खरगोश अपने परिवार को इस दरावने स्थिति में देखकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने भगवान से कहा, “हे भगवान, आपने हमें इतना कमजोर क्यों बनाया है? क्या हमें हर दिन अपनी जान के डर और भय में जीना ही है? क्या हमारा जीवन इसके लिए ही है कि हम हमेशा डर के मारे रहें?”

तभी सभी खरगोशों ने मिलकर तय किया कि इस तरह की जीवनशैली का कोई फायदा नहीं है और यह बेहतर होगा कि वे सब मिलकर अपने जीवन को त्याग दें।

इसके बाद, सभी खरगोश एक साथ नदी की ओर बढ़ चले। वहां पहुंचकर, वे खरगोश और उनके परिवार ने देखा कि नदी किनारे कई चूहे अपने बिलों में बसे थे। जब चूहों ने खरगोशों को आते देखा, तो वे सभी चौंक गए और तुरंत ही भागने लगे। कुछ चूहे बिलों में छुप गए, जबकि कुछ नदी में गिरकर मर गए। चूहों के बीच में हड़बड़ी और उथल-पुथल थी।

यह दृश्य देखकर खरगोश बहुत हैरान हुए। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उन्हें देखकर भी कोई डर रहा है। अब तक, वे सोचते थे कि वे सबसे कमजोर और भयभीत प्राणी हैं और भगवान को दोष देते थे।

खरगोशों को अब समझ में आ गया कि प्रकृति ने हर जीव को अपनी खासियतों और गुणों से सजाया है। जैसे जैसे कोई अपनी स्थिति और पर्याप्तियों के आधार पर कार्रवाई करता है, वह अपनी ताकत बनाता है।

खरगोश ने समझ लिया कि हर किसी की अपनी विशेषता है, और हर जीव को उसके स्वाभाव के साथ सही रूप से स्वीकार करना चाहिए। अगर किसी की कमजोरी है, तो उसमें कुछ न कुछ गुण भी होते हैं। हर जीव में अपनी विशेषता होती है, और यही विविधता जीवन को सुंदर बनाती है।

इस बाद खरगोश और उनका परिवार अपने बिल में वापस लौट आए और उन्होंने अपने भय को पार किया।

प्रकृति ने सभी जीवों को शक्तिशाली बनाया है, और हर जीव की अपनी खासियतें होती हैं। हमें हर जीव को उसके स्वाभाव के साथ स्वीकार करना चाहिए और उसकी मूल्यवानता को समझना चाहिए।

सबसे अनमोल

मिथिआ नाही रसना परस ॥ मन महि प्रीति निरंजन दरस ॥
पर त्रिअ रूपु न पेखै नेत्र ॥ साध की टहल संतसंगि हेत ॥

अशोक जी अपनी पत्नी के साथ अपनी रिटायर्ड जिंदगी बहुत हँसी खुशी गुजा़र रहे थे। उनके तीनों बेटे अलग अलग शहरों में अपने अपने परिवारों के साथ थे। उन्होनें नियम बना रखा था….दीपावली पर तीनों बेटे सपरिवार उनके पास आते थे…वो एक सप्ताह कैसे मस्ती में बीत जाता था…कुछ पता ही नही चलता था।

कैसे क्या हुआ…उनकी खुशियों को जैसे नज़र ही लग गई। अचानक शीला जी को दिल का दौरा पड़ा …एक झटके में उनकी सारी खुशियाँ बिखर गईं।

तीनों बेटे दुखद समाचार पाकर दौड़े आए। उनके सब क्रिया कर्म के बाद सब शाम को एकत्रित हो गए। बड़ी बहू ने बात उठाई,”बाबूजी, अब आप यहाँ अकेले कैसे रह पाऐंगे। आप हमारे साथ चलिऐ।”

“नही बहू, अभी यही रहने दो। यहाँ अपनापन लगता है। बच्चों की गृहस्थी में…।”

कहते कहते वो चुप से हो गए। बड़ा पोता कुछ बोलने को हुआ पर उन्होंने हाथ के इशारे से उसे चुप कर दिया।

“बच्चों, अब तुम लोगों की माँ हम सबको छोड़ कर जा चुकी हैं।उनकी कुछ चीजें हैं, वो तुम लोग आपस में बांट लो। हमसे अब उनकी साजसम्हाल नही हो पाऐगी।” कहते हुए अलमारी से कुछ निकाल कर लाए। मखमल के थैले में बहुत सुंदर चाँदी का श्रंगारदान था। एक बहुत सुंदर सोने के पट्टे वाली पुरानी रिस्टवाच थी…सब इतनी खूबसूरत चीजों पर लपक से पड़े।

छोटा बेटा जोश में बोला,”अरे ये घड़ी तो अम्मा सरिता को देना चाहती थी।”

अशोकजी धीरे से बोले,”और सब तो मैं तुम लोगों को बराबर से दे ही चुका हूँ। इन दो चीजों से उन्हें बहुत लगाव था। बेहद चाव से कभी कभी निकाल कर देखती थीं लेकिन अब कैसे उनकी दो चीजों को तुम तीनों में बांटू?”

सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे। तभी मंझला बेटा बड़े संकोच से बोला,”ये श्रंगारदान वो मीरा को देने की बात करती थी।”

पर समस्या तो बनी ही थी। वो मन में सोच रहे थे…बड़ी बहू को क्या दूँ। उनके मन के भाव शायद उसने पढ़ लिए,”बाबू जी, आप शायद मेरे विषय में सोच रहे हैं। आप श्रंगारदान मीरा को और रिस्टवाच सरिता को दे दीजिए… अम्मा भी तो यही चाहती थी।”

“पर नन्दिनी, तुझे क्या दूँ…समझ में नही आ रहा।”

“आपके पास एक और अनमोल चीज़ है और वो अम्माजी मुझे ही देना चाहती थीं।”

सबके मुँह हैरानी से खुले रह गए। दोनों बहुऐं तो बहुत हैरान परेशान हो गईं…अब कौन सा पिटारा खुलेगा।

सबकी हैरानी और परेशानी को भाँप कर बड़ी बहू मुस्कुरा कर बोली,”वो सबसे अनमोल तो आप स्वयं हैं। पिछली बार अम्माजी ने मुझसे कह दिया था,”मेरे बाद बाबूजी की देखरेख तेरे जिम्मे।बस अब आप उनकी इच्छा का पालन करें और हमारे साथ चलें।”

पाठशाला

काम क्रोध अरु लोभ मोह बिनसि जाइ अहमेव ॥
नानक प्रभ सरणागती करि प्रसादु गुरदेव ॥१॥

 

वेणुगोपाल सर कक्षा में आये। उन्होंने गृह कार्य चेक करने के लिए एक लड़के को… सभी बच्चों की कॉपियां इकट्ठा करने का आदेश दिया। दो तीन लड़के कॉपी लेकर नहीं आए थे, उन्हें मुर्गा बना दिया गया। कुछ लड़के उन्हें मुर्गा बना देखकर मुंह छुपा कर हंसने लगे तो कुछ इशारों से बात करने लगे। वेणुगोपाल सर ने दो-तीन कॉपियां ही जांची थी कि नरेंद्र की कॉपी उनके सामने आ गई। कॉफी जांचते हुए वह मुस्कुरा उठे। नरेंद्र उनके चेहरे पर आते जाते भाव से कुछ-कुछ अंदाजा लगाने की कोशिश करता है।

“नरेंद्र, खड़े हो जाओ।” भारी भरकम आवाज सुनकर सभी का ध्यान उस बच्चे की ओर चला गया।

“संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी कौन सी है?”

“सर, वाशिंगटन।”

“बिल्कुल गलत। अगर तुम्हें नहीं आता था तो पिताजी से पूछ लेते, पुस्तक में देख लेते। जो मन में आया वही लिख दिया।” अध्यापक गुस्से में बोल उठे।

“पर मुझे उत्तर पता है तो फिर किसी से क्यों पूंछूं?” नरेंद्र ने आराम से उत्तर दिया।

वेणुगोपाल जी उग्र स्वभाव वाले अध्यापक हैं। पलट कर कोई जवाब दे, यह उनके लिए असहनीय है। एकदम चीख कर बोले- “अमेरिका की राजधानी न्यूयॉर्क है। एक तो गलत जवाब लिखते हो, ऊपर से बहस।”

नरेंद्र को पूरा विश्वास है कि उसने गलत नहीं लिखा। फिर भला वह चुप क्यों रहे।

“नहीं गुरु जी। यह गलत है। न्यूयॉर्क नहीं, वाशिंगटन ही अमेरिका की राजधानी है।”

इस बार वेणुगोपाल की आग बबूला हो गए।

“एक तो गलती ऊपर से सीना-जोरी। अध्यापक के सामने जबान चलाते हो। तुम्हारी इतनी हिम्मत?” कक्षा के लड़के सकते में आ गए। लगा अब नरेंद्र की खैर नहीं। अब चांटा पड़ा कि तब? नरेंद्र बिना डरे बोला-
“यदि मैं आपकी बात मान भी लूं तो भी अमेरिका की राजधानी तो वही रहेगी। बदल तो नहीं जाएगी ना?”

अब तो सहन करना मुश्किल हो उठा। वेणु गोपाल जी ने मेज पर पड़ी अपनी छड़ी उठाई और कहा- “हाथ आगे बढ़ाओ।”

नरेंद्र ने पहली बार में हाथ आगे कर दिया। सर्र, सर्र, सर्र.. चार पाँच बेंत जोर-जोर से नन्ही हथेली पर पड़े।

“अब बताओ, संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी कौन-सी है?”

“अभी भी वाशिंगटन ही है।”
नरेंद्र ने अपनी कलाई पर काबू पाते हुए कहा।
वेणुगोपाल जी चौंक उठे। अभी तक ऐसा नहीं हुआ। न जाने कितने शरारती और बदतमीज लड़कों की अकल ठिकाने लगाई है। आज कुछ गड़बड़ लग रही है। क्या वे सचमुच गलत है? सत्य मनुष्य को ताकत देता है। वे कुर्सी पर बैठ गए और पुस्तक के पन्ने पलटने लगे। उन्हें अपने प्रश्न का जवाब मिल गया। भूल उन्हीं की ही थी। उन्होंने नजर उठाकर नरेंद्र को देखा और मुस्करा उठे।

“नरेंद्र मुझे खुशी है कि तुम सत्य पर टिके रहे। तुम्हारी इसी दृढ़ता के कारण मेरी भूल में सुधार हुआ। यही सत्य तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत बनेगा, शक्ति बनेगा।”
ना तो वेणुगोपाल सर के मन में कोई अपराध भाव रहा और ना ही नरेंद्र के मन में अपने गुरु जी के प्रति रोष। यही बालक बड़ा होकर स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सत्य पर अटल विश्वास एवं तर्कशक्ति के बल पर ही संसार में नाम कमाया। स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था। प्रत्येक वर्ष स्वामी विवेकानंद की जयंती पर देश के युवाओं को प्रेरित करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय युवा दिवस (Yuva Diwas) मनाया जाता है। अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से प्रेरित होकर उन्होंने वेदों का प्रचार किया। उन्होंने भारत में ही नहीं वरन विदेशों में भी धर्म के सही स्वरूप का प्रचार-प्रसार किया। भारत देश के प्रति उनके मन में भक्ति भाव था।
मात्र 39 साल की उम्र में 04 जुलाई 1902 को इनकी मृत्यु हुई।
विवेकानन्द स्मारक शिला (Vivekananda Rock Memorial) भारत के तमिलनाडु के कन्याकुमारी में समुद्र में स्थित एक स्मारक है। यह एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल बन गया है। यह भूमि तट से लगभग 500 मीटर अन्दर समुद्र में स्थित दो चट्टानों में से एक के ऊपर निर्मित किया गया है।
एकनाथ रानडे ने विवेकानंद शिला पर विवेकानंद स्मारक मन्दिर बनाने में विशेष कार्य किया। एकनाथ रानडे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह थे। दो सितंबर 1970 को विवेकानंद शिला स्मारक बन कर पूरा हुआ था।

स्वामी जी के अनमोल विचार

– संगति आप को ऊंचा उठा भी सकती है और यह आप की ऊंचाई से गिरा भी सकती है। …

– उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए।

– तुम्हें कोई पढ़ा नहीं सकता, कोई आध्यात्मिक नहीं बना सकता। …

– सब कुछ खोने से ज्यादा बुरा उस उम्मीद को खो देना जिसके भरोसे हम सब कुछ वापस पा सकते हैं।

– बहुत सी कमियों के बाद भी हम खुद से प्रेम करते हैं, तो दूसरों में एक कमी से कैसे घृणा कर सकते हैं?

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