क्रियाकाड

गुरि नानकि अंगदु वर्यउ गुरि अंगदि अमर निधानु ॥
गुरि रामदास अरजुनु वर्यउ पारसु परसु प्रमाणु ॥

एक रात ऐसा हुआ, एक पति घर वापस लौटा थका-मादा यात्रा से। प्यासा था, थका था। आकर बिस्तर पर बैठ गया। उसने अपनी पत्नी से कहा कि पानी ले आ, मुझे बड़ी प्यास लगी है। पत्नी पानी लेकर आयी, लेकिन वह इतना थका-मादा था कि लेट गया, उसकी नींद लग गयी। तो पत्नी रातभर पानी का गिलास लिए खड़ी रही बिस्तर के पास। क्योंकि उठाए, तो ठीक नहीं, नींद टूटेगी। खुद सो जाए, तो ठीक नहीं, पता नहीं कब नींद टूटे और पानी की मांग उठे, क्योंकि पति प्यासा सो गया है। तो रातभर गिलास लिए खड़ी रही।

सुबह पति की आंख खुली, तो उसने कहा, पागल, तू सो गयी होती! उसने कहा, यह संभव न था। तुम्हें प्यास थी, तुम कभी भी उठ आते! तो तू उठा लेती, पति ने कहा। उसने कहा, वह भी मुझसे न हो सका, क्योंकि तुम थके भी थे और तुम्हें नींद भी आ गयी थी। तो यही उचित था कि तुम सोए रहो, मैं गिलास लिए खड़ी रहूं। जब नींद खुलेगी, पानी पी लोगे। नहीं नींद खुलेगी, तो कोई हर्जा नहीं, एक रात जागने से कुछ बिगड़ा तो नहीं जाता है।

यह बात पूरे गांव में फैल गयी। सम्राट ने गांव के उस पत्नी को बुलाकर बहुत हीरे—जवाहरातों से स्वागत किया। उसने कहा कि ऐसी प्रेम की धारा मेरी इस राजधानी में थोड़ी भी बहती है, तो हम अभी मर नहीं गए हैं; अभी हमारी संस्कृति का प्राण जीवित है, स्पंदित है।

पड़ोस की महिला इससे बड़ी ईर्ष्या से भर गयी कि यह भी कोई खास बात थी! एक रात गिलास हाथ में लिए खड़े रहे, इसके लिए लाखों रुपए के हीरे-जवाहरात दे दिए हैं! यह भी कोई बात है?

उसने अपने पति से कहा कि देखो जी, आज तुम थके-मांदे होकर लौटना। आते से ही बिस्तर पर बैठ जाना। पानी मांगना। मैं पानी लेकर आ जाऊंगी। लेकिन तुम आंख बंद करके सो जाना और मैं खड़ी रहूंगी रातभर। और सुबह जब तुम्हारी आंख खुले, तो तुम इस तरह के वचन मुझसे बोलना, कि तू क्यों रातभर खड़ी रही? तू उठा लेती। मैं कहूंगी, कैसे उठा सकती थी? तुम थके -मांदे थे। कि तू सो जाती! तो मैं कहूंगी, कैसे सो जाती? तुम्हें प्यास लगी थीं। और इतने जोर से यह बात चाहिए कि पड़ोस में लोगों को पता चल जाए, सुनाई पड़ जाए। क्योंकि यह तो हद हो गयी! जरा रातभर… और किसको पक्का पता है कि खड़ी भी रही कि नहीं, क्योंकि रात सो ली हो, झपकी ले ली हो और फिर सुबह उठ आयी हो, और बात फैला दी हो! मगर हमें भी यह सम्राट से पुरस्कार लेना है।

पति सांझ थका—मादा वापस लौटा। लौटना पड़ा, जब पत्नी कहे, थके-मांदे लौटो, लौटना पड़ा। आते ही बिस्तर पर बैठा। कहा, प्यास लगी है। पत्नी पानी लेकर आयी। पति आंख बंद करके लेट गया। कोई नींद तो आई नहीं, लेकिन मजबूरी है। जब पत्नी कहती है, तो मानना पड़ेगा। और फिर लाखों—करोड़ों के हीरे—जवाहरात उसके मन को भी भा गए।

अब पत्नी ने सोचा कि बाकी दृश्य तो सुबह ही होने वाला है। अब कोई रातभर बेकार खड़े रहने में भी क्या सार है? और किसको पता चलता है कि खड़े रहे कि नहीं खड़े रहे? वह भी सो गयी गिलास—विलास रखकर।

सुबह उठकर उसने जोर से बातचीत शुरू की कि पड़ोस जान ले। सम्राट के द्वार से उसके लिए भी बुलावा आया, तो बहुत प्रसन्न हुई। लेकिन जब दरबार में पहुंची, तो बड़ी हैरान हुई; सम्राट ने वहा कोड़े लिए हुए आदमी तैयार रखे थे, और उस पर कोड़ों की वर्षा करवा दी। वह चीखी—चिल्लाई कि यह क्या अन्याय है? एक को हीरे—जवाहरात; मुझे कोड़े? किया मैंने भी वही है!

सम्राट ने कहा, किया वही है, हुआ नहीं है। और होने का मूल्य है, करने का कोई मूल्य नहीं है। और जीवन में यह रोज होता है। अगर हृदय में स्पंदन न हो रहा हो, तो तुम कर सकते हो, लेकिन उस करने से क्या अर्थ है?

सारे मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे कर रहे हैं। धर्म क्रियाकांड है। हो नहीं रहा है। गीता पढ़ी जा रही है, की जा रही है; हो नहीं रही है। तुमने सुन लिया है कि गीता को पढ़ने वाले पाप से मुक्त हो गए, मोक्ष को उपलब्ध हो गए। तुमने सोचा, हम भी हो जाएं! तुमने भी पढ़ ली। लेकिन तुम्हारा पढ़ना उस दूसरी पत्नी जैसा है। तुम परमात्मा को धोखा न दे पाओगे। साधारण सम्राट भी धोखा न खा सका, वह भी समझ गया कि ऐसी घटनाएं रोज नहीं घटती। और पड़ोस में ही घट गई! और वही की वही घटी, बिलकुल वैसी ही घटी! यह तो कोई नाटक हुआ।

जीवन पुनरुक्त नहीं होता। हर भक्त ने परमात्मा की प्रार्थना अपने ढंग से की है, किसी और के ढंग से नहीं। हर प्रेमी ने प्रेम अपने ढंग से किया है। कोई मजनू और शीरी और फरिहाद, उनकी किताब रखकर और पन्ने पढ़—पढ़कर और कंठस्थ कर—करके प्रेम नहीं किया है।

कोई जीवन नाटक नहीं है कि उसमें पीछे प्राम्पटर खड़ा है, और वह कहे चले जा रहा है, अब यह कहो, अब यह कहो। जीवन जीवन है। तुम उसे पुनरुक्त करके खराब कर लोगे। गीता तुम हजार दफे पढ़ लो; लेकिन जैसे अर्जुन ने पूछा था, वैसी जिज्ञासा न होगी, वैसी प्राणपण से उठी हुई मुमुक्षा न होगी। तो जो कृष्ण को सरल हुआ कहना, जो अर्जुन को संभव हुआ समझना, वह तुम्हें न घट सकेगा।

दोहराया जा ही नहीं सकता जगत में कुछ। प्रत्येक घटना अनूठी है। इसलिए सभी रिचुअल, सभी क्रियाकाड धोखाधड़ी है, पाखंड है। तुम भूलकर भी किसी की पुनरुक्ति मत करना, क्योंकि वहीं धोखा आ जाता है और प्रामाणिकता खो जाती है।

प्रामाणिक के लिए मुक्ति है, पाखंड के लिए मुक्ति नहीं है। और तुम कितना ही लाख सिर पटको और कहो कि मैंने भी तो वैसा ही किया था, मैंने भी तो ठीक अक्षरश: पालन किया था नियम का, फिर यह अन्याय क्यों हो रहा है? अक्षरश: पालन का सवाल ही नहीं है। अपने ईश्वर को अपने तरीके से भजो, राजा के भाँति वो आपको भी उचित सम्मान देगा।

भउ खला अगनि तप ताउ …

भउ खला अगनि तप ताउ ॥
भांडा भाउ अम्रितु तितु ढालि ॥ घड़ीऐ सबदु सची टकसाल ॥

 

भय को भट्टी बनाओ और प्रेम के पात्र में अमृत भर दो।
सच्चे शबद (गुरु के वचनों) की टकसाल में इसे ढालो।

गहरा विश्लेषण:

  1. भय को भट्टी बनाना: “भउ खला अगनि तप ताउ” का अर्थ है कि ईश्वर का भय (भक्ति भाव में रहने का डर) अपने भीतर अग्नि (भट्टी) की तरह बना लो। यह भय अहंकार और सांसारिक मोह के पिघलने की प्रक्रिया का प्रतीक है। जैसे भट्टी में धातुओं को तपाकर शुद्ध किया जाता है, वैसे ही इस भय से हमारे मन की अशुद्धियाँ दूर होती हैं और हमें ईश्वर के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है।
  2. प्रेम का पात्र और अमृत: “भांडा भाउ अम्रितु तितु ढालि” का अर्थ है कि प्रेम के पात्र में अमृत (ईश्वरीय प्रेम) को ढालना। यह प्रेम, मन को निर्मल और पवित्र बनाने का माध्यम है, और अमृत का प्रतीक है, जो हमें अमरता का अनुभव कराता है। ईश्वर के प्रति प्रेम से भरा हुआ यह मन रूपी पात्र हमारे जीवन में आनंद और शांति का संचार करता है।
  3. सच्चे शबद की टकसाल में ढलना: “घड़ीऐ सबदु सची टकसाल” का अर्थ है कि सच्चे शबद की टकसाल में खुद को ढालो। टकसाल वह जगह होती है जहाँ धातुओं को ढालकर सिक्के बनाए जाते हैं। इसी तरह, गुरु के शबद (वचन) में ढलकर हमें एक पवित्र और सच्चे व्यक्तित्व में बदलने का प्रयास करना चाहिए। यह सच्चा व्यक्तित्व वही है जो आत्मा के भीतर स्थायित्व और स्थिरता लाता है और हमें परमात्मा की ओर ले जाता है।

संदेश:

यह पंक्ति एक आत्मिक यात्रा की प्रक्रिया को दर्शाती है जिसमें हमें भक्ति भाव में रहकर अपने भीतर प्रेम और श्रद्धा का अमृत भरना है और गुरु के वचनों से ढलकर एक सत्य और सुंदर व्यक्ति बनना है। यह हमें अपने आंतरिक परिवर्तन के माध्यम से ईश्वर से जोड़ने का मार्ग दिखाता है।

सारांश:

“भउ खला अगनि तप ताउ” से लेकर “घड़ीऐ सबदु सची टकसाल” तक का संदेश है कि परमात्मा के प्रति भय, प्रेम, और गुरु के वचनों का अनुसरण हमें एक शुद्ध और सच्चे व्यक्तित्व की ओर ले जाता है। यह प्रक्रिया हमें अहंकार और इच्छाओं से मुक्त कर परमात्मा की ओर उन्मुख करती है।

महिला का साथ

इकु उतम पंथु सुनिओ गुर संगति तिह मिलंत जम त्रास मिटाई ॥
इक अरदासि भाट कीरति की गुर रामदास राखहु सरणाई ॥

दो सन्यासी बरसात के मौसम में एक आश्रम से दूसरे आश्रम की ओर जा रहे थे। बीच में नदी और जंगल पड़ती थी। दोनों सन्यासी पैदल यात्रा कर रहे थे। एक सन्यासी 25 वर्ष का था और दूसरा सन्यासी 65 वर्ष का। छोटे सन्यासी बड़े सन्यासी की बड़ी सेवा करते थे, आश्रम में नए सन्यासी सदैव अपने बड़े सन्यासियों के प्रति आदर सम्मान एवं सेवा का भाव रखते हैं। बड़े सन्यासी आगे आगे चल रहे थे। छोटे सन्यासी उनके ठीक पीछे चल रहे थे।

कुछ देर चलने के उपरांत अब उन्हें एक नदी पार करनी थी नदी के पास एक सुंदर सी युवा स्त्री खड़ी थी उसे स्त्री ने बड़े सन्यासी जी से निवेदन किया। स्त्री ने कहा मुझे तैरना नहीं आता और ये नदी पार करनी है। बड़े सन्यासी ने स्त्री की ओर अपना चेहरा घुमाया। स्त्री ने पुनः कहा मेरी सहायता कीजिए, मुझे नदी पार करवा दें। बड़े सन्यासी जी रुके और सोचने लगे, “क्या मुझे ऐसा करना चाहिए? मानवता के रूप से तो यह सही है। परंतु, मेरा इतने वर्षों का ब्रह्मचर्य है। कहीं स्त्री के स्पर्श से वह नष्ट ना हो जाए। मेरे इतने सालों की तपस्या है।

मैं यूं ही किसी की मदद करने के लिए उसे नष्ट नहीं कर सकता।” यह सब विचार कर बड़े सन्यासी जी ने हाथ जोड़कर उस महिला को मदद करने से मना कर दिया। बड़े सन्यासी जी नदी की ओर मुड़ कर नदी पार करने के लिए नदी में उतर पड़े।

जब नदी पार कर बड़े सन्यासी दूसरे छोर पर पहुंचे। तब उन्होंने पीछे मुड़कर छोटे सन्यासी को देखना चाहा कि, आखिर छोटे सन्यासी जी अभी कहां तक पहुंचे हैं। यह क्या? वह देखकर अचंभित रह गए। छोटे सन्यासी उस महिला को नदी पार करवाने में मदद कर रहे थे। छोटे संन्यासी ने उस महिला को अपनी पीठ पर चढ़ा रखा था और पानी में तैर रहे थे। यह सब देख बड़े सन्यासी हैरान भी थे और उन्हें क्रोध भी आ रहा था।

बड़े सन्यासी समझ नहीं पा रहे थे कि, वह इस बात से ज्यादा दुखी हैं या क्रोधित। वे सोच रहे थे आखिर कोई इतना मूर्ख कैसे हो सकता है कि अपने इतने सालों के संन्यास को और तपस्या को भंग कर दें? वह भी एक स्त्री के लिए! या फिर अभी इस छोटे सन्यासी की तपस्या में कमी थी? या वो अभी पूर्ण रूप से ब्रह्मचारी बन ही नहीं पाया था? एक स्त्री के सौंदर्य को देखकर भटक गया। यदि वह उसे मदद नहीं करता तो कौन सा मानव जाति पर कोई आपत्ति आ जानी थी?” यह सब सोच बड़े सन्यासी जल्दी-जल्दी आगे बढ़ते जा रहे थे।

बड़े संन्यासी ने जब फिर से पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि वे दोनों नदी पार कर चुके हैं। छोटे सन्यासी उस महिला से कह रहे थे की, देवी आप अब सुरक्षित हैं। अब आप अपने गंतव्य स्थान को जा सकती हैं। मैं आपसे अब जाने की आज्ञा लेता हूँ। यह कह कर वह भी बड़े सन्यासी के पीछे-पीछे आने लगे। बड़े सन्यासी आगे मुड़कर वापस आगे जाने लगे। तभी बड़े सन्यासी के पैर में एक कांटा चुभ गया और बड़े सन्यासी के पैरों से लहू बहने लगा। यह देख छोटे सन्यासी दौड़े और बड़े सन्यासी के पैर से कांटा निकाल दिया। फिर उन्हें बिठाने के लिए एक शिला साफ किया। परंतु, बड़े सन्यासी छोटे सन्यासी से अत्यंत क्रुद्ध थे। उन्होंने छोटे सन्यासी को डपटते हुए कहा, “मुझे तुम्हारी सहायता या सेवा की आवश्यकता नहीं है।”

यह कहकर लंगड़ाते हुए वह आगे बढ़ने लगे। जब भी छोटे सन्यासी कोई बात कहना चाहते या बड़े सन्यासी की सेवा करना चाहे, तो बड़े सन्यासी झिड़क देते। छोटे सन्यासी समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर हुआ क्या है? उनके सोच में यह बात दूर-दूर तक नहीं थी कि महिला की मदद करने के कारण बड़े सन्यासी दुखी एवं क्रोधित हैं। चलते चलते दोनों सन्यासी दूसरे आश्रम तक पहुंच गए। उन दोनों के रहने की व्यवस्था एक ही कमरे में की हुई थी।

दूसरे आश्रम के सन्यासियों ने इन दोनों का स्वागत किया। जब आश्रम के बाकी लोग कमरे से चले गए, तब बड़े संन्यासी ने क्रोध में बोला, “ये तुम्हें सन्यासी समझ रहे हैं। पर इन्हें क्या मालूम? तुम सन्यासी नहीं! भोगी हो। तुम मे सन्यासी और ब्रह्मचारी के कोई लक्षण नहीं है। छोटे सन्यासी कुछ समझ नहीं पाए। तब उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, “मुझ से क्या अपराध हुआ है? जिसके कारण आप मुझसे इतना क्रोधित है? आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि मुझ में सन्यासी ब्रह्मचारी के कोई लक्षण नहीं?

यह सब सुनकर बड़े सन्यासी कहने लगे, “जैसे तुम्हें पता ही नहीं कि तुमने क्या किया है? उस महिला ने मुझे भी तो मदद मांगी थी। पर मैंने अपने ब्रह्मचर्य को, अपने संन्यास को ताक पर रखकर, उसकी मदद करने की। तुमने एक क्षण सोचना भी आवश्यक नहीं समझा की, क्या उचित है? क्या अनुचित है? उसके सौंदर्य के आगे, अपनी तपस्या अपने सन्यास एवं ब्रह्मचर्य को एक बार भी याद नहीं कर पाए। सब का त्याग कर, उस महिला के हाथ को पड़कर नदी पार करने लगे। ऐसे अमर्यादित कृत्य करने के बाद तुम मुझसे पूछ रहे हो कि, मैंने ऐसा क्या किया है? माथे पर जब रूप का आकर्षण चढ़ता है तब कुछ और नहीं दिखता।”

तब हाथ जोड़कर छोटे संन्यासी ने मुस्कुराते हुए कहा, “आप सही कह रहे हैं। जब रूप का आकर्षण माथे पर चढ़ता है, तब कुछ और नहीं दिखता। मैंने तो उस महिला का साथ कब का छोड़ दिया, परंतु वह अभी तक आपके माथे में बैठी हुई है। क्या क्रोध, कुंठा और दुख ब्रह्मचर्य को भंग नहीं करते? क्या केवल स्त्री का स्पर्श ब्रह्मचर्य को भंग करता है?

ब्रह्मचर्य का स्थान मनुष्य के अंदर है, बाहर नहीं। बाहर की कोई भी स्थिति, प्रस्थिति, वस्तु, या स्थान एक संन्यासी एक ब्रह्मचारी को भंग नहीं कर सकते। जब तक वह स्वयं अंदर से भंग ना हो। मैंने तो उस स्त्री को केवल एक असहाय मानव के रूप में देखा। उसकी सहायता की और आगे चल पड़ा। सन्यासी जीवन में तो काम, क्रोध, मद, मोह किसी के लिए भी स्थान नहीं है। ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्म जैसा आचरण होता है। सन्यासी का अर्थ हर प्रकार के बंधन से मुक्ति होता है।”

यह सब सुन, बड़े सन्यासी हाथ जोड़कर छोटे सन्यासी से कहने लगे, “मुझे क्षमा कीजिए सन्यासी जी, आप आयु में मुझसे छोटे हैं, परंतु ज्ञान में मुझे बहुत ही बड़े हैं। मुझसे अपराध हुआ है।” तब छोटे संन्यासी ने कहा, “आपने सीख ले ली यह पर्याप्त है। बाकी अब आप मुझे, आपकी सेवा करने दें। यहां यही मेरा धर्म कहता है और दोनों मुस्कुराने लगे।

 

मनुष्य बाहर की बुराइयों से तभी आकर्षित हो सकता है, जब उसके अंदर में उन बुराइयों के लिए स्थान हो। यदि मनुष्य अपने आप को अंदर से निर्मल कर ले, तो बाहर की बुराइयां उसे दूषित नहीं कर सकती।

 

जतु पाहारा धीरजु सुनिआरु ॥ अहरणि मति वेदु हथीआरु ॥

जतु पाहारा धीरजु सुनिआरु ॥ अहरणि मति वेदु हथीआरु ॥

 

जप (स्मरण) को पहरेदार बनाओ, धैर्य को सुनार,
बुद्धि को धौंकनी और ज्ञान (वेद) को औजार।

गहरा विश्लेषण:

  1. जप को पहरेदार बनाना: “जतु पाहारा” का मतलब है कि जप या स्मरण को अपने जीवन का पहरेदार बना लेना चाहिए। एक पहरेदार का काम होता है कि वह अपने कर्तव्यों को निभाते हुए सतर्क रहे और गलत चीजों से बचाए। इसी प्रकार, अपने मन में परमात्मा का जप करते रहना जीवन के मार्ग में आने वाले संकटों से बचने में सहायक होता है। यह हमारे जीवन को सही दिशा में चलाने में मदद करता है और हमारी आत्मा को बुराइयों से बचाता है।
  2. धैर्य को सुनार बनाना: “धीरजु सुनिआरु” का अर्थ है कि हमें अपने धैर्य को सुनार की तरह बनाना चाहिए। जैसे एक सुनार बड़े धैर्य और सावधानी से आभूषण बनाता है, उसी प्रकार हमें धैर्य से जीवन की हर परिस्थिति का सामना करना चाहिए। कठिन समय में धैर्य और सहनशीलता ही हमें सच्ची समझ और स्थिरता प्रदान करती है।
  3. बुद्धि को धौंकनी और ज्ञान को औजार बनाना: “अहरणि मति वेदु हथीआरु” का मतलब है कि अपनी बुद्धि को एक धौंकनी (ब्लोअर) की तरह रखें और वेदों के ज्ञान को औजार की तरह इस्तेमाल करें। धौंकनी से जैसे आग को तेज किया जाता है, वैसे ही ज्ञान और बुद्धि से हमारी आत्मिक अग्नि प्रज्वलित होती है। वेद या ज्ञान का अर्थ है सही ज्ञान और समझ, जो हमारे हर कार्य में मार्गदर्शन का काम करती है।

संदेश:

यह पंक्ति हमें यह सिखाती है कि यदि हम अपने जीवन में जप, धैर्य, बुद्धि और ज्ञान को आधार बनाएं, तो हम आत्मिक उन्नति के मार्ग पर चल सकते हैं। यह जीवन को सजीवता, स्थिरता, और समझ से भर देता है। सही दिशा और संयम से, हर कार्य एक साधना बन सकता है और हमें परमात्मा की ओर ले जा सकता है।

सारांश:

“जतु पाहारा धीरजु सुनिआरु” से लेकर “अहरणि मति वेदु हथीआरु” तक का संदेश है कि अपने जीवन को ऐसा रूप दें, जहाँ जप (स्मरण), धैर्य, बुद्धि, और ज्ञान हमारे जीवन के आधार बनें। यह हमें सतर्कता, स्थिरता, समझ, और आत्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करता है।

कर्म का खेल

सतिगुरि नानकि भगति करी इक मनि तनु मनु धनु गोबिंद दीअउ ॥
अंगदि अनंत मूरति निज धारी अगम ग्यानि रसि रस्यउ हीअउ ॥

एक दिन एक अमीर आदमी भगवान शिव के दर्शन करने के लिए मंदिर में गया। इस अमीर आदमी ने बहुत ही महंगे जूते पहन रखे थे और उसने ऐसा भी सुना था की इस मंदिर में अक्सर चोरी होती रहती है। इस वजह से उसका मन नहीं हुआ की वह अपने कीमती जूते वहा बाहर छोड़कर चला जाए।

जूते पहनकर वह मंदिर में नहीं जा सकता था और उसे ऐसे ही बाहर छोड़कर वह जाना नहीं चाहता था। अब वह करे तो क्या करे? वह बड़ी दुविधा में पड़ गया था।

थोड़ी देर सोचने के बाद उस अमीर आदमी ने मंदिर के बाहर बैठे एक भिखारी से बात की। अमीर आदमी ने उस भिखारी को अपने जूते संभालने के लिए दे दिए। भिखारी भी उसके जूते संभालने के लिए राजी हो गया। फिर वो अमीर आदमी अंदर मंदिर में पूजा करने के लिए चला गया।

पूजा में बैठे-बैठे उस अमीर आदमी के मन में ख्याल आया कि भगवान ने कैसी विषम दुनिया बनाई है। मेरे जैसे कई लोगों को पैरों में कीमती जूते पहनने लायक बनाया है लेकिन उस बिचारे भिखारी जैसे अनगिनत लोगों को रोटी खाने के लिए भी भीख मांगनी पड़ती हैं।

वो अमीर आदमी मन ही मन भगवान से फरियाद करते हुए बोला कि आपने सब लोगों को एक समान क्यों नहीं बनाया? आपने सभी को एक जैसी सुविधा क्यों नहीं दी? फिर उसने मन ही मन तय किया की यहाँ से वापस जाते समय वो उस भिखारी को 500 रूपये देकर जाएगा।

पूजा खत्म होने के बाद जब अमीर आदमी बाहर आया तो ना उसे अपने जूते दिखे नाही उसे वो भिखारी दिखा। उस अमीर आदमी को लगा की भिखारी किसी काम से कही बाहर गया होंगा। इसलिए थोड़ी देर तक उसने वही खड़े रहकर भिखारी का इंतज़ार किया।

काफी देर तक इंतज़ार करने के बाद भी जब भिखारी वापस नहीं आया तो उस अमीर आदमी को पता चल गया की भिखारी उसे ठग के चला गया है।

दुखी होकर अमीर आदमी नंगे पैर ही अपने घर की तरफ चल पड़ा। रास्ते में उस अमीर आदमी ने देखा की फुटपाथ पर एक जूते चप्पल बेचने वाला बैठा है। अमीर आदमी एक जोड़ी चप्पल खरीदने के लिए उसके पास पहुंचा।

वहां पहुंचते ही उस अमीर आदमी की नजर उसके जूते के जैसे ही जूते पर पड़ी। अमीर आदमी पहचान गया कि ये उसी के जूते है। पूछने पर बेचने वाले ने पहले मना किया लेकिन बार-बार पूछने पर और दबाव देने पर उसने माना कि यह जूते उसे एक भिखारी ₹500 में बेच कर गया है।

अब वह अमीर आदमी बिना चप्पल खरीदे मुस्कुराते हुए वहां से अपने घर की तरफ नंगे पैर ही चला गया। उसे भगवान से की गई अपनी फरियाद का जवाब मिल चुका था। उसे समझ में आ गया था कि जब तक लोगों के कर्म एक जैसे नहीं होते तब तक सब एक समान नहीं हो सकते।

भगवान ने उस भिखारी के तकदीर में 500 रूपये लिखे ही थे लेकिन कैसे कर्म करके उन्हें लेना है यह उस भिखारी के हाथ में था। अगर वह चोरी ना भी करता फिर भी उसे 500 रूपये मिलने वाले थे। शायद उसके ऐसे ही बुरे कर्मों की वजह से आज वो एक भिखारी था।

तिथै खंड मंडल वरभंड ॥ जे को कथै त अंत न अंत …

तिथै खंड मंडल वरभंड ॥ जे को कथै त अंत न अंत ॥
तिथै लोअ लोअ आकार ॥ जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार ॥
वेखै विगसै करि वीचारु ॥ नानक कथना करड़ा सारु ॥

वहाँ अनगिनत संसार, ब्रह्मांड और लोक हैं, जिनका अंत कोई नहीं बता सकता।
हर लोक और आकार उस परमात्मा के आदेश से चलता है।
वह सब कुछ देखता है, खुश होता है, और विचार करता है।
नानक कहते हैं, इसे बयान करना अत्यंत कठिन है।

गहरा विश्लेषण:

  1. अनगिनत ब्रह्मांड और लोक: “तिथै खंड मंडल वरभंड” का अर्थ है कि उस दिव्य क्षेत्र (सचखंड) में अनगिनत संसार, ब्रह्मांड, और लोक मौजूद हैं। यह उस अनंतता की बात करता है जो परमात्मा के पास है। ये लोक और ब्रह्मांड इतनी अधिक मात्रा में हैं कि उनका न तो कोई सीमा है और न ही कोई अंत। यह हमें यह समझाने का प्रयास है कि परमात्मा की सृष्टि अनगिनत और असीमित है।
  2. हर चीज़ का परमात्मा के आदेश से होना: “तिथै लोअ लोअ आकार, जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार” का मतलब है कि हर लोक, हर आकार, और हर जीव परमात्मा के आदेश से संचालित होते हैं। हर जीव और हर वस्तु की गतिविधि परमात्मा के आदेश पर निर्भर करती है। जिस प्रकार उन्हें परमात्मा का आदेश होता है, वे उसी अनुसार काम करते हैं। यह परमात्मा की सर्वशक्तिमानता और सर्वव्यापीता को दर्शाता है कि उनकी मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं होता।
  3. परमात्मा की खुशी और गहरी सोच: “वेखै विगसै करि वीचारु” का अर्थ है कि परमात्मा अपनी सृष्टि को देखकर आनंदित होता है और उन पर गहरी सोच करता है। वह केवल देखता ही नहीं, बल्कि उसकी नजर में जो कुछ आता है, उस पर ध्यान और विचार भी करता है। परमात्मा अपने बनाए हुए सृष्टि की हर गतिविधि और परिस्थिति में गहरी रुचि रखता है, जिससे यह पता चलता है कि उसके प्रति उसका प्यार और दया का भाव हमेशा बना रहता है।
  4. अवर्णनीयता और कठिनाई: “नानक कथना करड़ा सारु” का मतलब है कि नानक कहते हैं, इस सत्य को बयान करना अत्यंत कठिन है। यह शबद यह समझाने की कोशिश करता है कि परमात्मा की महिमा, सृष्टि की असीमता और हर एक जीव की गतिविधि को बयान करना न केवल असंभव है, बल्कि उसकी गहराई को समझना भी बहुत कठिन है।

संदेश:

यह शबद हमें बताता है कि परमात्मा की सृष्टि अनंत, असीम, और रहस्यमयी है। हर ब्रह्मांड, हर लोक और हर जीव उनके आदेश से संचालित होता है, और यह सारी प्रक्रिया परमात्मा की दृष्टि में है। वह अपनी सृष्टि को देखकर प्रसन्न होते हैं, लेकिन इसे समझना और बयान करना कठिन है। नानक देव जी हमें इस असीमता को विनम्रता से स्वीकार करने का संदेश देते हैं।

सारांश:

“तिथै खंड मंडल वरभंड” से लेकर “नानक कथना करड़ा सारु” तक का संदेश है कि परमात्मा के सचखंड में अनगिनत ब्रह्मांड और लोक मौजूद हैं, और हर चीज़ उनकी मर्ज़ी से होती है। वह अपनी सृष्टि को देखता और विचार करता है। इसे बयान करना कठिन है क्योंकि यह सत्य अनंत और गहन है।

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