गुरुकुल

वडभागीआ सोहागणी जिन्हा गुरमुखि मिलिआ हरि राइ ॥
अंतरि जोति परगासीआ नानक नामि समाइ ॥

 

सन्तोष मिश्रा जी के यहाँ पहला लड़का हुआ तो पत्नी ने कहा, “बच्चे को गुरुकुल में शिक्षा दिलवाते है, मैं सोच रही हूँ कि गुरुकुल में शिक्षा देकर उसे धर्म ज्ञाता पंडित योगी बनाऊंगी।”

सन्तोष जी ने पत्नी से कहा, “पाण्डित्य पूर्ण योगी बना कर इसे भूखा मारना है क्या !! मैं इसे बड़ा अफसर बनाऊंगा ताकि दुनिया में एक कामयाबी वाला इंसान बने।।”

संतोष जी सरकारी बैंक में मैनेजर के पद पर थे ! पत्नी धार्मिक थी और इच्छा थी कि बेटा पाण्डित्य पूर्ण योगी बने, लेकिन सन्तोष जी नहीं माने।

दूसरा लड़का हुआ पत्नी ने जिद की, सन्तोष जी इस बार भी ना माने, तीसरा लड़का हुआ पत्नी ने फिर जिद की, लेकिन सन्तोष जी एक ही रट लगाते रहे, “कहां से खाएगा, कैसे गुजारा करेगा, और नही माने।” चौथा लड़का हुआ, इस बार पत्नी की जिद के आगे सन्तोष जी हार गए , और अंततः उन्होंने गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा दिलवाने के लिए वही भेज ही दिया ।

अब धीरे धीरे समय का चक्र घूमा, अब वो दिन आ गया जब बच्चे अपने पैरों पे मजबूती से खड़े हो गए, पहले तीनों लड़कों ने मेहनत करके सरकारी नौकरियां हासिल कर ली, पहला डॉक्टर, दूसरा बैंक मैनेजर, तीसरा एक गोवरमेंट कंपनी मेें जॉब करने लगा।

एक दिन की बात है सन्तोष जी पत्नी से बोले, “अरे भाग्यवान ! देखा, मेरे तीनो होनहार बेटे सरकारी पदों पे हो गए न, अच्छी कमाई भी कर रहे है, तीनो की जिंदगी तो अब सेट हो गयी, कोई चिंता नही रहेगी अब इन तीनो को। लेकिन अफसोस मेरा सबसे छोटा बेटा गुुुरुकुल का आचार्य बन कर घर घर यज्ञ करवा रहा है, प्रवचन कर रहा है ! जितना वह छ: महीने में कमाएगा उतना मेरा एक बेटा एक महीने में कमा लेगा, अरे भाग्यवान ! तुमने अपनी मर्जी करवा कर बड़ी गलती की , तुम्हे भी आज इस पर पश्चाताप होता होगा , मुझे मालूम है, लेकिन तुम बोलती नही हो”।।

पत्नी ने कहा, “हम मे से कोई एक गलत है, और ये आज दूध का दूध पानी का पानी हो जाना चाहिए, चलो अब हम परीक्षा ले लेते है चारों की, कौन गलत है कौन सही पता चल जाएगा ।।”

दूसरे दिन शाम के वक्त पत्नी ने बाल बिखरा , अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर और चेहरे पर एक दो नाखून के निशान मारकर आंगन मे बैठ गई और पतिदेव को अंदर कमरे मे छिपा दिया ..!!

बड़ा बेटा आया पूछा, “मम्मी क्या हुआ ?”

माँ ने जवाब दिया, “तुम्हारे पापा ने मारा है !”

पहला बेटा :- “बुड्ढा, सठिया गया है क्या ? कहां है ? बुलाओतो जरा।।”

माँ ने कहा, “नही है , बाहर गए है !”

पहला बेटा – “आए तो मुझे बुला लेना , मैं कमरे मे हूँ, मेरा खाना निकाल दो मुझे भूख लगी है !”

ये कहकर कमरे मे चला गया।

दूसरा बेटा आया पूछा तो माँ ने वही जवाब दिया,

दूसरा बेटा : “क्या पगला गए है इस बुढ़ापे मे , उनसे कहना चुपचाप अपनी बची खुची गुजार ले, आए तो मुझे बुला लेना और मैं खाना खाकर आया हूँ सोना है मुझे, अगर आये तो मुझे अभी मत जगाना, सुबह खबर लेता हूँ उनकी ।।”,

ये कह कर वो भी अपने कमरे मे चला गया ।

तीसरा बेटा आया पूछा तो आगबबूला हो गया, “इस बुढ़ापे मे अपनी औलादो के हाथ से जूते खाने वाले काम कर रहे है ! इसने तो मर्यादा की सारी हदें पार कर दीं।”

यह कर वह भी अपने कमरे मे चला गया ।।]

संतोष जी अंदर बैठे बैठे सारी बाते सुन रहे थे, ऐसा लग रहा था कि जैसे उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो, और उसके आंसू नही रुक रहे थे, किस तरह इन बच्चो के लिए दिन रात मेहनत करके पाला पोसा, उनको बड़ा आदमी बनाया, जिसकी तमाम गलतियों को मैंने नजरअंदाज करके आगे बढ़ाया ! और ये ऐसा बर्ताव , अब तो बर्दाश्त ही नहीं हो रहा…..

इतने मे चौथा बेटा घर मे ओम् ओम् ओम् करते हुए अंदर आया।।

माँ को इस हाल मे देखा तो भागते हुए आया, पूछा, तो माँ ने अब गंदे गंदे शब्दो मे अपने पति को बुरा भला कहा तो चौथे बेटे ने माँ का हाथ पकड़ कर समझाया कि “माँ आप पिताजी की प्राण हो, वो आपके बिना अधूरे हैं।

अगर पिता जी ने आपको कुछ कह दिया तो क्या हुआ, मैंने पिता जी को आज तक आपसे बत्तमीजी से बात करते हुए नही देखा, वो आपसे हमेशा प्रेम से बाते करते थे, जिन्होंने इतनी सारी खुशिया दी, आज नाराजगी से पेश आए तो क्या हुआ, हो सकता है आज उनको किसी बात को लेकर चिंता रही हो, हो ना हो माँ ! आप से कही गलती जरूर हुई होगी, अरे माँ ! पिता जी आपका कितना ख्याल रखते है, याद है न आपको, छ: साल पहले जब आपका स्वास्थ्य ठीक नही था, तो पिता जी ने कितने दिनों तक आपकी सेवा कीे थी, वही भोजन बनाते थे, घर का सारा काम करते थे, कपड़े धोते थे, तब आपने फोन करके मुझे सूचना दी थी कि मैं संसार की सबसे भाग्यशाली औरत हूँ, तुम्हारे पिता जी मेरा बहुत ख्याल करते हैं।”

इतना सुनते ही बेटे को गले लगाकर फफक फफक कर रोने लगी, सन्तोष जी आँखो मे आंसू लिए सामने खड़े थे।

“अब बताइये क्या कहेंगे आप मेरे फैसले पर”, पत्नी ने संतोष जी से पूछा।

सन्तोष जी ने तुरन्त अपने बेटे को गले लगा लिया, !

सन्तोष जी की धर्मपत्नी ने कहा, *”ये शिक्षा इंग्लिश मीडियम स्कूलो मे नही दी जाती। माँ-बाप से कैसे पेश आना है, कैसे उनकी सेवा करनी है। ये तो गुरुकुल ही सिखा सकते हैं जहाँ वेद गीता रामायण जैसे ग्रन्थ पढाये जाते हैैं संस्कार दिये जाते हैं।

अब सन्तोष जी को एहसास हुआ- जिन बच्चो पर लाखो खर्च करके डिग्रीया दिलाई वे सब जाली निकले , असल में ज्ञानी तो वो सब बच्चे है, जिन्होंने जमीन पर बैठ कर पढ़ा है, मैं कितना बड़ा नासमझ था, फिर दिल से एक आवाज निकलती है, काश मैंने चारो बेटो को गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा दी होती।

गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी॥

उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥

भावार्थ:-(क्योंकि) गुरु, पिता, माता, स्वामी और सुहृद् (मित्र) की वाणी सुनकर प्रसन्न मन से उसे अच्छी समझकर करना (मानना) चाहिए। उचित-अनुचित का विचार करने से धर्म जाता है और सिर पर पाप का भार चढ़ता है॥

मातृमान पितृमान आचार्यावान् पुरुषो वेद:।।

श्रीखण्ड्या

विणु बोलिआ सभु किछु जाणदा किसु आगै कीचै अरदासि ॥
नानक घटि घटि एको वरतदा सबदि करे परगास ॥

 

बहुत दूर से ब्राह्मण संत एकनाथ महाराज का घर ढूँढ़ता हुआ आया था। जब वह नाथ के द्वार पर आया, तो उसकी सारी ओस गायब हो गई। उसके मन में एक अधीरता थी, एक जुनून था। घर में प्रवेश करने के बाद जैसे ही नाथ पर नजर पड़ी तो ब्राह्मण ने उनके पैर पकड़ लिए। उन्होंने हाथ जोड़कर नाथ से कहा,

नाथबाबा, मुझे भगवान श्री कृष्ण के दर्शन कराओ।

एकनाथ महाराज को कुछ समझ नहीं आया। आप कौन हैं? मैं तुम्हें और उसे भी नहीं जानता, मैं कहाँ रहता हूँ? ये भी नहीं पता। तभी गिरिजादेवी (नाथ की पत्नी) वहाँ आ गयीं। वे भी सुन चुकी थीं कि वह ब्राह्मण नाथों से क्या कह रहा था।

नाथ ने उसे उठाकर अपने पास रख लिया। लेकिन वह ब्राह्मण बार-बार एक ही वाक्य कह रहा था।

नाथबाबा, मुझे भगवान कृष्ण के दर्शन कराओ।

ब्राह्मण की निगाहें घर का कोना-कोना तलाश रही थीं। नाथ ने उन्हें मंच पर बैठाया। उन्होंने अपने हाथों से उनके पैर धोये। तब तक गिरिजादेवी मीठा जल ले आईं। यह देखकर उस ब्राह्मण का हृदय भर आया।

वह झट से बैठ गया और नाथ के पैर पकड़कर उससे बोला, नाथ बाबा, मुझे 15 दिन पहले एक दर्शन हुआ था। भगवान कृष्ण मेरे स्वप्न में आये और मुझसे कहा कि मैं पिछले 12 वर्षों से एकनाथ महाराज के घर में श्रीखंड्या के रूप में रह रहा हूँ। अब मेरे जाने का समय हो गया है। यदि तुम मुझसे मिलना चाहते हो तो एकनाथ महाराज के घर आओ।

नाथबाबा, बताओ प्रभु तुम्हारे घर में श्रीखंड्या के नाम से 12 वर्षोंसे रह रहें हैं। वे कहां हैं? उनके विरह से मेरे प्राण निकले जा रहे हैं।

यह सुनकर गिरिजादेवी के होश उड़ गये। नाथ को होश भूल गया। दरअसल श्रीखंड्या पिछले 12 साल से उनके घर में पानी भरने का काम कर रहा था। और वो कल ही नाथ जी से ये कहकर गया था की वो कल वापस काम पे आएगा।

नाथजी सोचने लगे “उन्होंने हमें साधारण पहचान भी नहीं दी। ये कैसी लीला रची उन्होंने ? एक बार पहचान बता तो देते, उसी पल उनके चरणों में प्राण अर्पण कर देता। नाथजी प्रभू के विरह में और भी व्याकुल हो गए उनकी आँखे भर आई ।

नाथ खम्भे का सहारा लेकर धीरे से बैठ गये। गिरिजादेवी को होश आ गया। फिर श्रीखंड्या की यादें याद आने लगीं।

वो श्रीखंड्या की सादगी, उसकी हर हरकत, चुपचाप अपना काम करना, वही कल वाली मनमोहक मुस्कान।

नाथ की आँखें बहने लगीं। उन्होंने ध्यान किया। और उन्हें एहसास हुआ कि स्वयं भगवान कृष्ण, विश्वके के स्वामी, पिछले 12 वर्षों से उनके घर में श्रीखंड्या के रूपमें पानी भर रहे थे।

यहां गिरिजादेवी की स्थिति भी कुछ अलग नहीं थी। दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा। गिरिजादेवी मन में कह रही थीं,

चोर, एक चोर ! आप बारह वर्ष तक हमारे निकट रहे, परन्तु आपने हमें खबर तक न होने दी। इन सभी वर्षों में आपने हमें बहुत प्यार किया है।

नाथ खंभा पकड़कर उठ गये। उन्होंने उस घड़े को देखा, छुआ। श्रीखंड्या ने बारह वर्षों तक अपने कंधोंसे उठाई हुई कावड़ को देखा, उसे छुआ। नाथ की आँखों से आँसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। जहाँ श्रीखंड्या भोजन करने बैठते थे, जहाँ विश्राम करते थे। नाथ श्रीखंड्या ने जहां-जहां स्पर्श किया, वहां-वहां अपने हाथों से स्पर्श करने लगे।

गिरिजादेवी ने अपनी आंखों में आंसुओं के साथ सचमुच उस जमीन को भिगो दिया जहां श्रीखंड्या बैठे थे। उनका ह्रदय प्रभू के विरह से भर गया। उन्होंने आसमान की ओर देखा। और कहा,

“हे प्रभु, आप हर जगह हैं, आप आंखों में हैं, आप शरीर में हैं, आप अंदर हैं। आप हमारे घर में श्रीखण्ड्या बनकर रहते थे। हमने तुम्हें एक बेचारा साधारण पनक्या समझ लिया। हमें क्षमा करें भगवान कृष्ण! परंतु यदि यह सत्य है कि आप सचमुच पिछले 12 वर्षों से श्रीखंड्या के रूप में हमारे साथ रह रहे हैं तो श्रीखंड्या के उपलक्ष्य में प्रसाद के रूप में कुछ दे दीजिए।”

क्या आश्चर्य है! इसके साथ ही नदी मूसलाधार बहने लगी, हवा तेज़ थी। कोने में श्रीखंड्याकी लाठी जिसपर घुंघरू बांधे थे, वो उस हवा के साथ गिर गयी। घंटियाँ बज उठीं। उस घुँघुरकाठी में एक शंख बंधा हुआ था। उस शंख से केसर और कस्तूरी की सुगंध नाथ के घर में चारों ओर भर गई।

वह ब्राह्मण इस सबका साक्षी था। वह आश्चर्य एवं अविश्वास से यह देख रहा था। भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी यह इच्छा भी पूरी की थी। और उसकी आंखे भी कब बहने लगी इसका उसे भी पता नही चला…

तो ऐसे है हमारे प्रभू। कोई उनकी थोड़िसी भक्ति क्यों ना करे, वे अपना सबकुछ उसपर दोनो हातोंसे लूटा देते है। जिन परमात्मा श्रीकृष्ण ने गीता में अपना असीम सामर्थ्य और ऐश्वर्य का वर्णन किया जिनकी पत्नी अनंत संपत्ति और धन धान्य की देवी है, जिनके रोम रोम में अनंत ब्रम्हांड बसते है, सार्वभौम स्वर्ग का राजा इंद्र भी नित्य जिनकी सेवा में तत्पर होता है, उन परम शक्तिशाली भगवान ने अपना वैभवशाली वैकुंठ छोड़कर अपने भक्त के छोटेसे घर में सेवक बनकर १२ सालोंतक पानी भरा।ऐसे है हमारे प्रभू धन्य धन्य है उनका भक्तप्रेम और उनसे भी धन्य है उनके परम भाग्यशाली भक्त, जो संपूर्ण विश्वके स्वामी को अपने भक्तिप्रेम से बांध लेते है।

लहंगा चुनरिया

मनमुख दह दिसि फिरि रहे अति तिसना लोभ विकार ॥ माइआ मोहु न चुकई मरि जमहि वारो वार ॥
सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ अति तिसना तजि विकार ॥ जनम मरन का दुखु गइआ जन नानक सबदु बीचारि ॥

 

एक संत बरसाना में रहते थें और हर रोज सुबह उठकर यमुना जी में स्नान करके राधा जी के दर्शन करने जाया करते थें। यह नियम हर रोज का था। जब तक राधा रानी के दर्शन नहीं कर लेते थें, तब तक जल भी ग्रहण नहीं करते थें। दर्शन करते करते तकरीबन उनकी उम्र अस्सी वर्ष की हो गई। आज सुबह उठकर रोज की तरह उठे और यमुना में स्नान किया और राधा रानी के दर्शन को चलें गए। मन्दिर के पट खुले और राधा रानी के दर्शन करने लगे।

दर्शन करते करते संत के मन में भाव आया की :- “मुझे राधा रानी के दर्शन करते करते आज अस्सी वर्ष हो गए लेकिन मैंने आज तक राधा रानी को कोई भी वस्त्र नहीं चढ़ाया। लोग राधा रानी के लिए कोई नारियल लाता है, कोई चुनरिया लाता है, कोई चूड़ी लाता है, कोई बिन्दी लाता है, कोई साड़ी लाता है, कोई लहंगा चुनरिया लाता है। लेकिन मैंने तो आज तक कुछ भी नहीं चढ़ाया है।”

यह विचार संत जी के मन में आया की “जब सभी मेरी राधा रानी लिए कुछ ना कुछ लाते हैं, तो मैं भी अपनी राधा रानी के लिए कुछ ना कुछ लेकर जरूर आऊंगा। लेकिन क्या लाऊं? जिससे मेरी राधा रानी खुश हो जायें ?

तो संन्त जी यह सोच कर अपनी कुटिया में आ गए। सारी रात सोचते सोचते सुबह हो गई उठे उठ कर स्नान किया और आज अपनी कुटिया में ही राधा रानी के दर्शन पूजन कियें।

दर्शन के बाद मार्केट में जाकर सबसे सुंदर वाला लहंगा चुनरिया का कपड़ा लायें और अपनी कुटिया में आकर के अपने ही हाथों से लहंगा-चुनरिया को सिला और सुंदर से सुंदर उस लहंगा-चुनरिया में गोटा लगायें। जब पूरी तरह से लहंगा चुनरिया को तैयार कर लिया तो मन में सोचा कि “इस लहंगा चुनरिया को अपनी राधा रानी को पहनाऊंगा तो बहुत ही सुंदर मेरी राधा रानी लगेंगी।”

यह सोच करके आज संन्त जी उस लहंगा-चुनरिया को लेकर राधा रानी के मंदिर को चले। मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने लगे और अपने मन में सोच रहे हैं , “आज मेरे हाथों के बनाएं हुए लहंगा चुनरिया राधा रानी को पहनाऊगां तो मेरी लाड़ली खूब सुंदर लगेंगी” यह सोच कर जा रहे हैं।

इतने मे एक बरसाना की लड़की (लाली) आई और बाबा से कहती है :- “बाबा आज बहुत ही खुश हो, क्या बात है ? बाबा बताओ ना !”

तो बाबा ने कहा कि :- “लाली आज मे बहुत खुश हूँ। आज मैं अपने हाथों से राधा रानी के लिए लहंगा-चुनरिया बनाया है। इस लहंगा चुनरिया को राधा रानी जी को पहनाऊंगा और मेरी राधा रानी बहुत सुंदर दिखेंगी।”

उस लाली ने कहा :- “बाबा मुझे भी दिखाओ ना आपने लहंगा चुनरिया कैसी बनाई है।”

लहंगा चुनरिया को देखकर वो लड़की बोली :- “अरे बाबा राधा रानी के पास तो बहुत सारी पोशाक है। तो ये मुझे दे दो ना।”

तो महात्मा बोले की :- “बेटी तुमको मैं दूसरी बाजार से दिलवा दूंगा। ये तो मै अपने हाथ से बनाकर राधा रानी के लिये लेकर जा रहा हूँ। तुमको और कोई दुसरा दिलवा दूंगा।”

लेकिन उस छोटी सी बालिका ने उस महात्मा का दुपट्टा पकड़ लिया “बाबा ये मुझे दे दो”, पर संत भी जिद करने लगे की “दूसरी दिलवाउंगा ये नहीं दूंगा।”

लेकिन वो बच्ची भी इतनी तेज थी की संत के हाथ से छुड़ा लहंगा-चुनरिया को छीन कर भाग गई।

अब तो बाबा को बहुत ही दुख लगा की “मैंने आज तक राधा रानी को कुछ नहीं चढ़ाया। लेकिन जब लेकर आया तो लाली लेकर भाग गई। “मेरा तो जीवन ही खराब है। अब क्या करूँगा?”

यह सोच कर संन्त उसी सीढ़ियों में बैठे करके रोने लगें।

इतने मे कुछ संत वहाँ आयें और पूछा :- “क्या बात है, बाबा ? आप क्यों रो रहे हैं।” तो बाबा ने उन संतों को पूरी बात बताई, संतों ने बाबा को समझाया और कहा कि :- “आप दुखी मत हो कल दूसरी लहंगा चुनरिया बना के राधा रानी को पहना देना। चलो राधा रानी के दर्शन कर लेते हैं।”

इस प्रकार संतो ने बाबा को समझाया और राधा रानी के दर्शन को लेकर चले गए। रोना तो बन्द हुआ लेकिन मन ख़राब था। क्योंकि कामना पूरी नहीं हुई ना, तो अनमने मन से राधा रानी का दर्शन करने संत जा रहे थें और मन में ये ही सोच रहे हैं ” की मुझे लगता है की किशोरी जी की इच्छा नहीं थीं , शायद राधा रानी मेरे हाथों से बनी पोशाक पहनना ही नहीं चाहती थीं ! “, ऐसा सोचकर बड़े दुःखी होकर जा रहे हैं।

मंदिर आकर राधा रानी के पट खुलने का इन्तजार करने लगें।

थोड़े ही देर बाद मन्दिर के पट खुले तो संन्तो ने कहा :- “बाबा देखो तो आज हमारी राधा रानी बहुत ही सुंदर लग रही हैं।”

संतों की बात सुनकर के जैसे ही बाबा ने अपना सिर उठा कर के देखा तो जो लहंगा चुनरिया बाबा ने अपने हाथों से बनाकर लाये थें, वही आज राधा रानी ने पहना था।

बाबा बहुत ही खुश हो गए और राधा रानी से कहा हे “राधा रानी, आपको इतना भी सब्र नहीं रहा आप मेरे हाथों से मंदिर की सीढ़ियों से ही लेकर भाग गईं ! ऐसा क्यों?”

सर्वेश्वरी श्री राधा रानी ने कहा की “बाबा आपके भाव को देखकर मुझ से रहा नहीं गया और ये केवल पोशाक नहीं है, इस में आपका प्रेम है। इस लिए तो मैं खुद ही आकर के आपसे लहंगा चुनरिया छीन कर भाग गई थी।”

इतना सुनकर के बाबा भाव विभोर हो गये और बाबा ने उसी समय किशोरी जी का धन्यवाद किया।

संन्यासी

बिनु सबदै जगतु बरलिआ कहणा कछू न जाइ ॥
हरि रखे से उबरे सबदि रहे लिव लाइ ॥
नानक करता सभ किछु जाणदा जिनि रखी बणत बणाइ ॥

एक वृद्ध संन्यासी अपनी कुटिया में रहकर साधन भजन करते थे। वहां के राजा कभी कभी उनके पास जाकर ज्ञान की बातें सुना करते थे।

संत की सेवा का महत्व जानकर उन्होंने महात्माजी से आग्रह किया कि महाराज! मैं आपके लिए कुछ अच्छी व्यवस्था करना चाहता हूं।

संन्यासी ने कहा कि मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, मैं अपनी व्यवस्था में प्रसन्न हूं। राजा के विशेष आग्रह करने पर उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी।

स्वीकृति लेकर राजा ने अपने राज भवन के निकट ही महात्माजी के लिए सुंदर भवन बनवाया।

सुख-सुविधा हेतु सारी सामग्री भवन में जुटा दिया। भवन के सामने सुंदर उद्यान लगवा दिया। सवारी के लिए हाथी घोड़े और सेवा के लिए अनेक सेवकों की व्यवस्था उन्होंने कर दी। महात्माजी उसी में रहने लगे। अब उनके कपड़े भी कीमती और सुंदर हो गए।

कुछ दिनों के बाद एक दिन राजा और महात्माजी साथ में घूमने के लिए निकले। रास्ते में राजा ने उनसे पूछा— “महाराज! अब मुझ में और आप में क्या अंतर रहा?’

महात्माजी ने कहा—”तनिक आगे चलो, फिर बतलाऊंगा।”

चलते चलते वे लोग दूर निकल गए। राजा को थकावट हो रही थी। कुछ जरूरी राजकीय कार्य भी उनको स्मरण हो आया। अतः राजा ने निवेदन किया कि हमलोग नगर से बहुत दूर निकल गए हैं, अब लौटना चाहिए।

महात्माजी ने कहा–” थोड़ा और चलो।” थोड़ी देर और चलने पर सामने जंगल आ गया। राजा ने घबराकर कहा—”महाराज! अब आगे जाना ठीक नहीं है। शाम होने को है, लौटकर भवन चलना चाहिए।”

महात्माजी ने उत्तर दिया–“अब लौट कर करना ही क्या है?

मेरी तो लौटने की इच्छा नहीं है। राज-सुख तो हम लोगों ने बहुत भोग लिए। अब चलो वन में रहकर ही ईश्वर का भजन करेंगे।” राजा हाथ जोड़कर बोला— “महाराज! मुझे स्त्री है, बच्चे हैं, राज की व्यवस्था देखने वाला कोई नहीं है। जंगल में रहने की साहस भी मुझ में नहीं है। मैं अब आगे नहीं जा सकता।”

महात्माजी ने हंसते हुए कहा–“राजन! मुझ में और तुझ में यही अंतर है। बाहरी रहन-सहन से क्या होता है? हृदय का भाव ही प्रधान है। जिसका मन भोगों में आसक्त है वह वन में रहकर भी संसारी है

और जिसका मन अनासक्त है वह महल में रहकर भी विरक्त है, संन्यासी है। तुम महल में जाओ और मैं अपने लक्ष्य की ओर चलता हूं।” ऐसा कहकर महात्माजी घने जंगल में ओझल हो गए।

तुलसीदासजी ने बड़ा अच्छा कहा है कि जिस व्यक्ति को आनंददायक ब्रह्म-पीयूष मिल गया है, वह मृगतृष्णा का जल पीने के लिए दौड़ नहीं लगाता है।

ब्रह्म पीयूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै। तो कत मृगजल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै

धैर्य और प्रेम

विछुड़ि विछुड़ि जो मिले सतिगुर के भै भाइ ॥ जनम मरण निहचलु भए गुरमुखि नामु धिआइ ॥
गुर साधू संगति मिलै हीरे रतन लभंन्हि ॥ नानक लालु अमोलका गुरमुखि खोजि लहंन्हि ॥

 

एक वृद्ध सन्यासी हिमालय की पहाड़ियों में कहीं रहता था. वह बड़ा ज्ञानी था और उसकी बुद्धिमत्ता की ख्याति दूर -दूर तक फैली थी. एक दिन एक औरत उसके पास पहुंची और अपना दुखड़ा रोने लगी , ” बाबा, मेरा पति मुझसे बहुत प्रेम करता था , लेकिन वह जबसे युद्ध से लौटा है ठीक से बात तक नहीं करता .”

” युद्ध लोगों के साथ ऐसा ही करता है.” , सन्यासी बोला.

” लोग कहते हैं कि आपकी दी हुई जड़ी-बूटी इंसान में फिर से प्रेम उत्पन्न कर सकती है , कृपया आप मुझे वो जड़ी-बूटी दे दें.” , महिला ने विनती की.

सन्यासी ने कुछ सोचा और फिर बोला ,” देवी मैं तुम्हे वह जड़ी-बूटी ज़रूर दे देता लेकिन उसे बनाने के लिए एक ऐसी चीज चाहिए जो मेरे पास नहीं है .”

” आपको क्या चाहिए मुझे बताइए मैं लेकर आउंगी .”, महिला बोली.

” मुझे बाघ की मूंछ का एक बाल चाहिए .”, सन्यासी बोला.

अगले ही दिन महिला बाघ की तलाश में जंगल में निकल पड़ी , बहुत खोजने के बाद उसे नदी के किनारे एक बाघ दिखा , बाघ उसे देखते ही दहाड़ा , महिला सहम गयी और तेजी से वापस चली गयी.

अगले कुछ दिनों तक यही हुआ , महिला हिम्मत कर के उस बाघ के पास पहुँचती और डर कर वापस चली जाती. महीना बीतते-बीतते बाघ को महिला की मौजूदगी की आदत पड़ गयी, और अब वह उसे देख कर सामान्य ही रहता. अब तो महिला बाघ के लिए मांस भी लाने लगी , और बाघ बड़े चाव से उसे खाता. उनकी दोस्ती बढ़ने लाफि और अब महिला बाघ को थपथपाने भी लगी. और देखते देखते एक दिन वो भी आ गया जब उसने हिम्मत दिखाते हुए बाघ की मूंछ का एक बाल भी निकाल लिया.

फिर क्या था , वह बिना देरी किये सन्यासी के पास पहुंची , और बोली

” मैं बाल ले आई बाबा .”

“बहुत अच्छे .” और ऐसा कहते हुए सन्यासी ने बाल को जलती हुई आग में फ़ेंक दिया

” अरे ये क्या बाबा , आप नहीं जानते इस बाल को लाने के लिए मैंने कितने प्रयत्न किये और आपने इसे जला दिया ……अब मेरी जड़ी-बूटी कैसे बनेगी ?” महिला घबराते हुए बोली.

” अब तुम्हे किसी जड़ी-बूटी की ज़रुरत नहीं है .” सन्यासी बोला . ” जरा सोचो , तुमने बाघ को किस तरह अपने वश में किया….जब एक हिंसक पशु को धैर्य और प्रेम से जीता जा सकता है तो क्या एक इंसान को नहीं ? जाओ जिस तरह तुमने बाघ को अपना मित्र बना लिया उसी तरह अपने पति के अन्दर प्रेम भाव जागृत करो.”

महिला सन्यासी की बात समझ गयी , अब उसे उसकी जड़ी-बूटी मिल चुकी थी.

जली हुई कड़क रोटी

नामि लगे से ऊबरे बिनु नावै जम पुरि जांहि ॥
नानक बिनु नावै सुखु नही आइ गए पछुताहि ॥

 

एक शाम की बात है। माँ ने दिनभर की लम्बी थकान और ढेर सारे काम के बाद जब रात का भोजन बनाया, तो पापा के सामने एक प्लेट में सब्जी और एक जली हुई रोटी रख दी। मैं वहाँ बैठा यह देख रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि कोई तो इस जली रोटी पर कुछ बोलेगा। परंतु हैरानी की बात यह थी कि पापा ने बिना कुछ कहे उस जली हुई रोटी को आराम से खा लिया। कुछ देर बाद मैंने माँ को पापा से इस गलती के लिए “सॉरी” कहते सुना। और जो बात पापा ने जवाब में कही, वह मेरे दिल में हमेशा के लिए बस गई।

पापा मुस्कुराते हुए बोले, “अरे, मुझे तो जली हुई कड़क रोटी बहुत पसंद है!”

रात को जब मैं पापा के पास गया तो खुद को रोक नहीं पाया और उनसे पूछ बैठा, “क्या सच में आपको जली हुई रोटी पसंद है?”

पापा ने हल्के से हँसते हुए जवाब दिया, “तुम्हारी माँ ने आज दिनभर खूब मेहनत की, और वह सच में बहुत थकी हुई थी। और… वैसे भी, बेटा, एक जली हुई रोटी किसी का दिल नहीं दुखाती, पर कठोर शब्द या आलोचना किसी को जरूर ठेस पहुंचा सकती है।”

पापा ने कुछ देर के लिए रुककर कहा, “देखो बेटा, जिंदगी अपूर्ण चीजों और अपूर्ण लोगों से भरी हुई है। हर किसी में कुछ न कुछ कमी होती है, मुझमें भी। मैं स्वयं कोई आदर्श व्यक्ति नहीं हूँ। मैंने यह सीखा है कि हमें एक-दूसरे की गलतियों को समझना और स्वीकार करना चाहिए, उन्हें अनदेखा करना चाहिए, और सबसे बढ़कर अपने रिश्तों का सम्मान और आनंद लेना चाहिए।”

पापा की यह बात मेरे दिल को छू गई। सचमुच, जिंदगी बहुत छोटी है। इसे हर सुबह किसी दुख, पछतावे या खेद के साथ शुरू करके बर्बाद करने का कोई अर्थ नहीं। जो लोग हमारे प्रति अच्छा व्यवहार रखते हैं, उन्हें प्यार देना चाहिए, और जो ऐसा नहीं करते, उनके लिए सहानुभूति और दया का भाव रखना चाहिए।

संबंधों में छोटी-छोटी गलतियों को नजरअंदाज करना, एक-दूसरे को सहारा देना और रिश्तों का सम्मान करना हमें जीवन में शांति और खुशी देता है।

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