स्त्री ,दोस्त ,महबूबा …
मूसन मसकर प्रेम की रही जु अ्मबरु छाइ ॥
बीधे बांधे कमल महि भवर रहे लपटाइ ॥
स्त्री एक बेहतरीन दोस्त साबित होती है, अगर पुरुष उसमें महबूबा ढूंढना छोड़ दें…
एक दिन मैंने अपनी पत्नी नीतिका से बड़े ही सरल अंदाज में पूछा, “तुम्हें कभी बुरा नहीं लगता कि मैं तुम्हें बार-बार कुछ न कुछ कहता रहता हूँ, कभी डांटता हूँ, तो कभी बेवजह ही गुस्सा दिखाता हूँ, और फिर भी तुम हमेशा मेरे लिए समर्पित रहती हो? जबकि मैंने शायद कभी कोशिश भी नहीं की कि मैं पत्नी-भक्त बनूं या तुम्हारी जैसी भक्ति दिखाऊं?”
मैं अपने आप को काफी पढ़ा-लिखा समझता हूँ। मैंने भारतीय संस्कृति और वेदों का गहन अध्ययन किया है, और इनकी शिक्षा का मैं सदैव अनुयायी रहा हूँ। जबकि मेरी पत्नी नीतिका विज्ञान की छात्रा रही है। लेकिन हर दिन मुझे लगता है कि उसकी आध्यात्मिक शक्तियाँ मुझसे कहीं अधिक हैं। मैं बस किताबें पढ़ता हूँ, लेकिन वह इन बातों को अपने जीवन में पूरी तरह उतार चुकी है।
मेरे सवाल पर वह हल्की सी मुस्कराई और मेरे सामने पानी का गिलास रखते हुए बोली, “यह बताइए, क्या कभी आपने देखा है कि जब कोई बेटा अपनी मां की सेवा करता है, उसे ‘मातृ भक्त’ कहा जाता है, लेकिन जब मां अपने बेटे की सेवा करती है, तो क्या उसे कभी ‘पुत्र भक्त’ कहा जाता है?”
मैं उसकी बात सुनकर थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। मुझे समझ में आ गया कि आज भी वह मुझे तर्कों से निरुत्तर करने वाली है। फिर मैंने एक और सवाल दागा, “अच्छा यह बताओ, जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ, तो स्त्री और पुरुष दोनों समान थे, फिर समाज में पुरुष बड़ा कैसे बन गया? स्त्री तो हमेशा से शक्ति का स्वरूप मानी जाती है ना?”
उसने हँसते हुए कहा, “आपको थोड़ा विज्ञान भी पढ़ना चाहिए था, केवल वेद नहीं।”
उसकी इस बात पर मैं थोड़ा झेंप गया, लेकिन फिर उसने गंभीरता से बात आगे बढ़ाई, “दुनिया का सारा अस्तित्व दो ही चीज़ों से निर्मित है – ऊर्जा और पदार्थ। पुरुष ऊर्जा का प्रतीक है, जबकि स्त्री पदार्थ का। जब पदार्थ को विकसित होना होता है, तो वह ऊर्जा का आधान करता है, ना कि ऊर्जा पदार्थ का। उसी तरह, जब एक स्त्री पुरुष से ऊर्जा का आधान करती है, तो वह शक्ति स्वरूप हो जाती है। वह न केवल अपने लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रथम पूज्या बन जाती है, क्योंकि वह अब ऊर्जा और पदार्थ दोनों की स्वामिनी हो जाती है। जबकि पुरुष सिर्फ ऊर्जा का ही अंश बनकर रह जाता है।”
मैंने तुरंत फिर सवाल किया, “तो इसका मतलब तुम मेरी भी पूज्य हो गई, क्योंकि तुम तो अब ऊर्जा और पदार्थ दोनों की स्वामिनी हो।”
अब वह थोड़ा मुस्कराते हुए बोली, “आप भी कितनी नासमझ बातें करते हैं। हाँ, मैंने आपकी ऊर्जा का अंश लिया और शक्तिशाली हो गई। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मैं अपनी शक्ति का इस्तेमाल आप पर ही करूँ। ऐसा करना तो कृतघ्नता होगी।”
मैंने कहा, “फिर मैं तुम पर अपनी शक्ति का प्रयोग करता हूँ, तुम क्यों नहीं?”
उसके अगले जवाब ने मेरी आंखों में आँसू ला दिए। उसने बड़े ही प्यार से कहा, “जिस व्यक्ति के साथ जीवन का अंश साझा करके मुझे ‘माता’ जैसा ऊँचा पद मिला, जिसके संसर्ग से मेरे अंदर जीवन देने की शक्ति जागृत हो गई, उस व्यक्ति के साथ मैं विद्रोह कैसे कर सकती हूँ? आप तो मेरे जीवन का आधार हैं। आपके द्वारा मुझे दिए गए इस ऊँचे स्थान को मैं कभी चुनौती नहीं दूंगी।”
फिर वह हँसते हुए बोली, “अगर मुझे शक्ति का प्रयोग करना ही होगा, तो क्या जरूरत है? मैं तो माता सीता की तरह लव-कुश तैयार कर दूँगी, और वो आपसे मेरा हिसाब-किताब कर लेंगे।”
उसकी बात सुनकर मैं अचंभित रह गया। उसकी समझदारी, उसका प्रेम, और उसकी आध्यात्मिकता ने मुझे पूरी तरह से नतमस्तक कर दिया।
उस पल, मुझे एहसास हुआ कि दुनिया की सारी मातृ शक्तियां ही असली आधार हैं, जिन्होंने अपने प्रेम, त्याग, और मर्यादा में समस्त सृष्टि को बाँध रखा है। ऐसे सभी मातृ रूपों को मेरा सहस्त्र नमन, जिन्होंने इस दुनिया को सच्चे प्रेम और अनुशासन की डोर में बांधकर रखा है।