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स्त्री ,दोस्त ,महबूबा …

मूसन मसकर प्रेम की रही जु अ्मबरु छाइ ॥

बीधे बांधे कमल महि भवर रहे लपटाइ ॥

 

स्त्री एक बेहतरीन दोस्त साबित होती है, अगर पुरुष उसमें महबूबा ढूंढना छोड़ दें…

एक दिन मैंने अपनी पत्नी नीतिका से बड़े ही सरल अंदाज में पूछा, “तुम्हें कभी बुरा नहीं लगता कि मैं तुम्हें बार-बार कुछ न कुछ कहता रहता हूँ, कभी डांटता हूँ, तो कभी बेवजह ही गुस्सा दिखाता हूँ, और फिर भी तुम हमेशा मेरे लिए समर्पित रहती हो? जबकि मैंने शायद कभी कोशिश भी नहीं की कि मैं पत्नी-भक्त बनूं या तुम्हारी जैसी भक्ति दिखाऊं?”

मैं अपने आप को काफी पढ़ा-लिखा समझता हूँ। मैंने भारतीय संस्कृति और वेदों का गहन अध्ययन किया है, और इनकी शिक्षा का मैं सदैव अनुयायी रहा हूँ। जबकि मेरी पत्नी नीतिका विज्ञान की छात्रा रही है। लेकिन हर दिन मुझे लगता है कि उसकी आध्यात्मिक शक्तियाँ मुझसे कहीं अधिक हैं। मैं बस किताबें पढ़ता हूँ, लेकिन वह इन बातों को अपने जीवन में पूरी तरह उतार चुकी है।

मेरे सवाल पर वह हल्की सी मुस्कराई और मेरे सामने पानी का गिलास रखते हुए बोली, “यह बताइए, क्या कभी आपने देखा है कि जब कोई बेटा अपनी मां की सेवा करता है, उसे ‘मातृ भक्त’ कहा जाता है, लेकिन जब मां अपने बेटे की सेवा करती है, तो क्या उसे कभी ‘पुत्र भक्त’ कहा जाता है?”

मैं उसकी बात सुनकर थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। मुझे समझ में आ गया कि आज भी वह मुझे तर्कों से निरुत्तर करने वाली है। फिर मैंने एक और सवाल दागा, “अच्छा यह बताओ, जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ, तो स्त्री और पुरुष दोनों समान थे, फिर समाज में पुरुष बड़ा कैसे बन गया? स्त्री तो हमेशा से शक्ति का स्वरूप मानी जाती है ना?”

उसने हँसते हुए कहा, “आपको थोड़ा विज्ञान भी पढ़ना चाहिए था, केवल वेद नहीं।”

उसकी इस बात पर मैं थोड़ा झेंप गया, लेकिन फिर उसने गंभीरता से बात आगे बढ़ाई, “दुनिया का सारा अस्तित्व दो ही चीज़ों से निर्मित है – ऊर्जा और पदार्थ। पुरुष ऊर्जा का प्रतीक है, जबकि स्त्री पदार्थ का। जब पदार्थ को विकसित होना होता है, तो वह ऊर्जा का आधान करता है, ना कि ऊर्जा पदार्थ का। उसी तरह, जब एक स्त्री पुरुष से ऊर्जा का आधान करती है, तो वह शक्ति स्वरूप हो जाती है। वह न केवल अपने लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रथम पूज्या बन जाती है, क्योंकि वह अब ऊर्जा और पदार्थ दोनों की स्वामिनी हो जाती है। जबकि पुरुष सिर्फ ऊर्जा का ही अंश बनकर रह जाता है।”

मैंने तुरंत फिर सवाल किया, “तो इसका मतलब तुम मेरी भी पूज्य हो गई, क्योंकि तुम तो अब ऊर्जा और पदार्थ दोनों की स्वामिनी हो।”

अब वह थोड़ा मुस्कराते हुए बोली, “आप भी कितनी नासमझ बातें करते हैं। हाँ, मैंने आपकी ऊर्जा का अंश लिया और शक्तिशाली हो गई। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मैं अपनी शक्ति का इस्तेमाल आप पर ही करूँ। ऐसा करना तो कृतघ्नता होगी।”

मैंने कहा, “फिर मैं तुम पर अपनी शक्ति का प्रयोग करता हूँ, तुम क्यों नहीं?”

उसके अगले जवाब ने मेरी आंखों में आँसू ला दिए। उसने बड़े ही प्यार से कहा, “जिस व्यक्ति के साथ जीवन का अंश साझा करके मुझे ‘माता’ जैसा ऊँचा पद मिला, जिसके संसर्ग से मेरे अंदर जीवन देने की शक्ति जागृत हो गई, उस व्यक्ति के साथ मैं विद्रोह कैसे कर सकती हूँ? आप तो मेरे जीवन का आधार हैं। आपके द्वारा मुझे दिए गए इस ऊँचे स्थान को मैं कभी चुनौती नहीं दूंगी।”

फिर वह हँसते हुए बोली, “अगर मुझे शक्ति का प्रयोग करना ही होगा, तो क्या जरूरत है? मैं तो माता सीता की तरह लव-कुश तैयार कर दूँगी, और वो आपसे मेरा हिसाब-किताब कर लेंगे।”

उसकी बात सुनकर मैं अचंभित रह गया। उसकी समझदारी, उसका प्रेम, और उसकी आध्यात्मिकता ने मुझे पूरी तरह से नतमस्तक कर दिया।

उस पल, मुझे एहसास हुआ कि दुनिया की सारी मातृ शक्तियां ही असली आधार हैं, जिन्होंने अपने प्रेम, त्याग, और मर्यादा में समस्त सृष्टि को बाँध रखा है। ऐसे सभी मातृ रूपों को मेरा सहस्त्र नमन, जिन्होंने इस दुनिया को सच्चे प्रेम और अनुशासन की डोर में बांधकर रखा है।

आखहि ईसर आखहि सिध ॥ आखहि केते कीते बुध…

आखहि ईसर आखहि सिध ॥ आखहि केते कीते बुध ॥
आखहि दानव आखहि देव ॥ आखहि सुरि नर मुनि जन सेव ॥

 

ईश्वर का वर्णन शिव और सिद्ध करते हैं।
बहुत से ज्ञानी और बुद्धिमान उनका वर्णन करते हैं।
दानव (असुर) और देवता भी उनका वर्णन करते हैं।
देवता, मनुष्य, मुनि (संत) और सेवक भी उनका गुणगान करते हैं।

इस पंक्ति का आध्यात्मिक और व्यावहारिक अर्थ:

1. ईश्वर का वर्णन सर्वत्र होता है:

“आखहि ईसर आखहि सिध” का अर्थ है कि भगवान शिव (ईसर) और सिद्ध (जिन्होंने आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की है) ईश्वर का वर्णन करते हैं। यह बताता है कि ईश्वर का गुणगान केवल सांसारिक लोग ही नहीं, बल्कि देवता और सिद्ध पुरुष भी करते हैं। उनकी महिमा इतनी व्यापक और गहरी है कि सर्वश्रेष्ठ आत्माएँ भी उनका ध्यान और वर्णन करती हैं।

2. बुद्धिमान और ज्ञानी भी उनका वर्णन करते हैं:

“आखहि केते कीते बुध” का मतलब है कि बहुत से बुद्धिमान और ज्ञानी लोग भी ईश्वर का वर्णन करते हैं। चाहे कोई कितना भी बुद्धिमान हो, वे भी ईश्वर की महिमा का वर्णन करने में लगे रहते हैं। यह इस बात पर जोर देता है कि ईश्वर की महिमा को समझने और व्यक्त करने के लिए केवल ज्ञान और बुद्धिमत्ता ही पर्याप्त नहीं होती, बल्कि उसके लिए समर्पण और भक्ति की आवश्यकता होती है।

3. असुर और देवता दोनों उनका वर्णन करते हैं:

“आखहि दानव आखहि देव” का अर्थ है कि दानव (असुर) और देवता भी ईश्वर का वर्णन करते हैं। यह बताता है कि ईश्वर केवल अच्छे लोगों के नहीं, बल्कि सभी के लिए हैं। असुर (जो बुरे कर्म करते हैं) और देवता (जो अच्छे कर्म करते हैं), दोनों ही ईश्वर की महिमा का वर्णन करते हैं, चाहे उनके दृष्टिकोण भिन्न हों। यह इस विचार को प्रस्तुत करता है कि ईश्वर की कृपा और महिमा किसी पर भी सीमित नहीं है; वह सभी के लिए है, चाहे वे अच्छे हों या बुरे।

4. संत, मनुष्य, और सेवक सभी उनका गुणगान करते हैं:

“आखहि सुरि नर मुनि जन सेव” का अर्थ है कि देवता, मनुष्य, मुनि (संत), और सेवक (जो भगवान की सेवा करते हैं) सभी ईश्वर का गुणगान करते हैं। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि चाहे कोई साधारण मनुष्य हो, कोई संत हो, या फिर कोई सेवक, सभी ईश्वर की महिमा में एक समान होते हैं। सभी उनके प्रति प्रेम और भक्ति के कारण उनकी आराधना और सेवा करते हैं।

5. ईश्वर की महिमा को हर कोई व्यक्त करता है:

यह पंक्ति हमें यह सिखाती है कि ईश्वर की महिमा इतनी विशाल और व्यापक है कि हर वर्ग, चाहे वे देवता हों, संत हों, ज्ञानी हों, या साधारण मनुष्य, सभी उनका गुणगान करते हैं। यह गुणगान और भक्ति का सार्वभौमिक रूप दर्शाता है कि ईश्वर किसी विशेष वर्ग के लिए नहीं हैं, बल्कि वह सबके लिए हैं। ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति सबके दिलों में है, और उनकी महिमा का बखान हर कोई करता है।

6. समानता और समर्पण का संदेश:

यह शबद हमें सिखाता है कि ईश्वर के प्रति भक्ति और समर्पण में सभी समान हैं। चाहे कोई कितना भी बड़ा ज्ञानी हो या कितनी ही साधारण आत्मा हो, ईश्वर के सामने सब एक समान हैं। केवल भक्ति, प्रेम, और समर्पण ही वह मार्ग है जिससे ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

इस प्रकार, “आखहि ईसर आखहि सिध ॥ आखहि केते कीते बुध ॥
आखहि दानव आखहि देव ॥ आखहि सुरि नर मुनि जन सेव ॥”
यह शबद हमें यह सिखाता है कि ईश्वर की महिमा का वर्णन हर कोई करता है—चाहे वे देवता, मुनि, असुर, मनुष्य, या ज्ञानी हों। यह सार्वभौमिक भक्ति और समर्पण का संदेश देता है, जिसमें सभी को ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति में लीन होने की प्रेरणा मिलती है।

साधु

सतिगुर कीनी दाति मूलि न निखुटई ॥ खावहु भुंचहु सभि गुरमुखि छुटई ॥
अम्रितु नामु निधानु दिता तुसि हरि ॥ नानक सदा अराधि कदे न जांहि मरि ॥

 

एक बार की बात है। एक संत अपने एक शिष्य के साथ किसी नगर की ओर जा रहे थे। रास्ते में चलते-चलते रात हो चली थी और तेज बारिश भी हो रही थी। संत और उनका शिष्य कच्ची सड़क पर चुपचाप चले जा रहे थे। उनके कपड़े भी कीचड़ से लथपथ हो चुके थे। मार्ग में चलते-चलते संत ने अचानक अपने शिष्य से सवाल किया–‘वत्स, क्या तुम बता सकते हो कि वास्तव में सच्चा साधु कौन होता है ?’

संत की बात सुनकर शिष्य सोच में पड़ गया। उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सूझा। उसे मौन देखकर संत ने कहा–‘सच्चा साधु वह नहीं होता, जो अपनी सिद्धियों के प्रभाव से किसी रोगी को ठीक कर दे या पशु-पक्षियों की भाषा समझ ले। सच्चा साधु वह भी नहीं होता, जो अपने घर-परिवार से नाता तोड़ पूरी तरह बैरागी बन गया हो या जिसने मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया हो।’

शिष्य को यह सब सुनकर बहुत आश्चर्य हो रहा था। वह तो इन्हीं गुणों को साधुता के लक्षण मानता था। उसने संत से पूछा–‘गुरुदेव, तो फिर सच्चा साधु किसे कहा जा सकता है ?’

इस पर संत ने कहा–‘वत्स, कल्पना करो कि इस अंधेरी, तूफानी रात में हम जब नगर में पहुँचे और द्वार खटखटाएँ। इस पर चौकीदार हमसे पूछे–‘कौन है ?’ और हम कहें–‘दो साधु।’ ‘इस पर वह कहे–‘मुफ्तखोरों! चलो भागो यहाँ से। न जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं।’ संत के मुख से ऐसी बातें सुनकर शिष्य की हैरानी बढ़ती जा रही थी।

संत ने आगे कहा–‘सोचो, इसी तरह का व्यवहार और जगहों पर भी हो। हमें हर कोई उसी तरह दुत्कारे, अपमानित करे, प्रताड़ित करे। इस पर भी यदि हम नाराज न हों, उनके प्रति जरा-सी भी कटुता हमारे मन में आए और हम उनमें भी प्रभु के ही दर्शन करते रहें, तो समझो कि यही सच्ची साधुता है।

साधु होने का मापदंड है–हर परिस्थिति में समानता और सहजता का व्यवहार।’ इस पर शिष्य ने सवाल किया–‘लेकिन इस तरह का भाव तो एक गृहस्थ में भी हो सकता है। तो क्या वह भी साधु है ?’

संत ने मुस्कराते हुए कहा–‘बिलकुल है, जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि सिर्फ घर छोड़कर बैरागी हो जाने से ही कोई साधु नहीं हो जाता। साधु वही है, जो साधुता के गुणों को धारण करे। और ऐसा कोई भी कर सकता है।’

 

आखहि वेद पाठ पुराण ॥ आखहि पड़े करहि वखिआण…

आखहि वेद पाठ पुराण ॥ आखहि पड़े करहि वखिआण ॥
आखहि बरमे आखहि इंद ॥ आखहि गोपी तै गोविंद ॥

 

वेदा, पाठ और पुराणों का वर्णन किया जाता है।
पढ़े हुए शब्दों और कथनों को व्याख्या किया जाता है।
ब्रह्मा और इंद्र का वर्णन किया जाता है।
परंतु, गोपी और गोविंद (कृष्ण) का वर्णन भी किया जाता है।

इस पंक्ति का विश्लेषण:

1. धार्मिक ग्रंथों और ज्ञान का वर्णन:

“आखहि वेद पाठ पुराण” से तात्पर्य है कि वेद, पाठ (शास्त्र), और पुराणों का वर्णन और अध्ययन किया जाता है। ये धार्मिक ग्रंथ और शास्त्र आध्यात्मिक ज्ञान और मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। उनका अध्ययन और वर्णन महत्वपूर्ण होता है क्योंकि ये हमें धर्म, ईश्वर, और जीवन के गहरे अर्थों के बारे में जानकारी देते हैं।

2. पढ़े हुए शब्दों की व्याख्या:

“आखहि पड़े करहि वखिआण” का मतलब है कि पढ़े हुए शब्दों और उनके अर्थों की व्याख्या की जाती है। यह दर्शाता है कि धार्मिक ग्रंथों और शास्त्रों की पढ़ाई के बाद, उनके अर्थ और शिक्षाओं को समझने और व्याख्या करने की आवश्यकता होती है। केवल पढ़ना ही पर्याप्त नहीं है; समझने और लागू करने की प्रक्रिया भी महत्वपूर्ण है।

3. संसारिक देवताओं का वर्णन:

“आखहि बरमे आखहि इंद” में ब्रह्मा (सर्जक) और इंद्र (वृष्टि और दैवी शक्ति के देवता) का वर्णन किया जाता है। यह हमें दिखाता है कि ये देवता भी धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और उनकी महिमा का वर्णन किया जाता है।

4. कृष्ण की विशेषता और महिमा:

“आखहि गोपी तै गोविंद” में गोपी और गोविंद (कृष्ण) का वर्णन किया गया है। यह बताता है कि कृष्ण की विशेषता और महिमा, विशेष रूप से गोपियों के प्रति उनका प्रेम, एक महत्वपूर्ण और अद्वितीय पहलू है। कृष्ण का प्रेम, उनकी लीलाएँ, और उनकी दिव्यता का वर्णन भी महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि यह दर्शाता है कि ईश्वर की भक्ति और प्रेम किस प्रकार व्यक्त होते हैं।

5. सारांश और संतुलन:

इस पंक्ति का सार यह है कि धार्मिक ग्रंथों, देवताओं, और विशेष रूप से कृष्ण के वर्णन और अध्ययन के माध्यम से, आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव प्राप्त किया जाता है। जबकि वेद और पुराण महत्वपूर्ण हैं, कृष्ण का प्रेम और उनकी लीलाएँ भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह दर्शाता है कि ज्ञान, भक्ति, और प्रेम का संतुलित दृष्टिकोण आध्यात्मिक यात्रा के लिए आवश्यक है।

6. आध्यात्मिक शिक्षा:

यह पंक्ति हमें यह सिखाती है कि धार्मिक ग्रंथों और देवताओं की शिक्षा के साथ-साथ कृष्ण के दिव्य प्रेम और उनकी लीलाओं का अध्ययन भी आवश्यक है। इसे समझने से हम पूर्णता और संतुलन प्राप्त कर सकते हैं, जो आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

इस प्रकार, “आखहि वेद पाठ पुराण ॥ आखहि पड़े करहि वखिआण ॥
आखहि बरमे आखहि इंद ॥ आखहि गोपी तै गोविंद ॥”
यह बताता है कि धार्मिक ग्रंथों, देवताओं, और विशेष रूप से कृष्ण की महिमा का वर्णन और अध्ययन हमें आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव प्राप्त करने में सहायता करता है।

सादगी का सच्चा प्रेम

ऊपरि बनै अकासु तलै धर सोहती ॥
दह दिस चमकै बीजुलि मुख कउ जोहती ॥
खोजत फिरउ बिदेसि पीउ कत पाईऐ ॥
हरिहां जे मसतकि होवै भागु त दरसि समाईऐ ॥

 

 

मेरी शादी मेरी मर्जी के खिलाफ एक साधारण से लड़के के साथ कर दी गई थी। उसके घर में बस उसकी माँ थी, और कोई नहीं। शादी में उसे बहुत सारे उपहार और पैसे मिले थे, पर मेरा दिल कहीं और था। मैं किसी और से प्यार करती थी, और वो भी मुझसे। लेकिन किस्मत ने मुझे यहाँ ला दिया, अपने ससुराल।

शादी की पहली रात जब वो दूध लेकर आया, मैंने उससे पूछा, “एक पत्नी की मर्जी के बिना पति उसे छूए तो उसे बलात्कार कहते हैं या हक?” उसने बस इतना कहा, “आपको इतनी गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। मैं सिर्फ शुभ रात्रि कहने आया हूँ,” और कमरे से बाहर चला गया। मैं सोच रही थी कि झगड़ा हो जाए ताकि मैं इस अनचाहे रिश्ते से छुटकारा पा सकूं, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

मैं उस घर में रहकर भी घर का कोई काम नहीं करती थी। दिनभर ऑनलाइन रहती और न जाने किस-किस से बातें करती। उसकी माँ, बिना किसी शिकायत के, घर का सारा काम करती रहती, और उसके चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान होती। मेरे पति एक साधारण कंपनी में काम करते थे—बेहद मेहनती और ईमानदार। हमारी शादी को एक महीना हो चुका था, लेकिन हम पति-पत्नी की तरह कभी साथ नहीं सोए थे।

उस दिन, जब मैंने उसकी माँ के बनाए खाने को बुरा-भला कहकर फेंक दिया, तो उसने पहली बार मुझ पर हाथ उठाया। बस, मुझे वही चाहिए था—एक बहाना झगड़े का। मैं पैर पटकते हुए घर से निकल गई, अपने पुराने प्यार से मिलने। वो मुझसे कहता, “कब तक यहाँ रहोगी? चलो, भाग चलते हैं कहीं दूर।” पर सच तो यह था कि मेरे पास कुछ भी नहीं था, और वो खाली हाथ भागने को तैयार नहीं था।

फिर एक दिन, मेरे ससुराल में एक घटना घटी। मैंने पहली बार अपने पति की अलमारी खोली। उसमें मेरा बैंक पासबुक, एटीएम कार्ड, और वो सारे गहने थे, जो मेरे घरवालों ने मुझसे छीन लिए थे। मुझे ये सब देखकर झटका लगा। साथ ही, उसकी डायरी में मेरे लिए एक खत रखा था। उसमें लिखा था कि उसने मेरी हर चीज को संजोकर रखा था, और दहेज में मिले सारे पैसे मेरे अकाउंट में ट्रांसफर कर दिए थे। उसने लिखा कि वो मुझे प्यार से इस रिश्ते में बाँधना चाहता है, न कि जबरदस्ती।

उसकी इन बातों ने मेरे दिल को छू लिया। मैंने सोचा भी नहीं था कि ये “गंवार” मुझे इस तरह से समझ सकता है, बिना कुछ कहे। धीरे-धीरे, मुझे एहसास हुआ कि वो मुझे उसी सादगी से प्यार करता है, जिस सादगी से उसने मुझे अपनी जिंदगी में जगह दी थी।

अगली सुबह, मैंने सिंदूर गाढ़ा करके अपनी माँग में भरा और अपने पति के ऑफिस चली गई। वहाँ पहुँचकर मैंने सबके सामने कहा, “अब सब ठीक है। हम साथ-साथ एक लंबी छुट्टी पर जा रहे हैं।”

उस दिन, मुझे समझ आया कि जिन फैसलों को मैं गलत मानती थी, वही मेरे लिए सबसे सही थे। मेरे माँ-बाप ने मेरे लिए जो भी किया, वो सिर्फ मेरे भले के लिए था।

कभी-कभी हमारी जिंदगी में जो फैसले हमें गलत लगते हैं, वो ही हमारे लिए सही साबित होते हैं। जबरन रिश्तों में भी सच्चा प्यार और समझदारी हो तो वह धीरे-धीरे दिल को जीत लेता है। जीवन में सच्ची खुशी बाहरी आकर्षण या भौतिक वस्तुओं में नहीं होती, बल्कि सादगी, समझदारी और बिना शर्त के प्रेम में छिपी होती है।

अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥ आखि आखि रहे लिव लाइ ॥

अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥ आखि आखि रहे लिव लाइ ॥

 

ईश्वर की अमूल्यता को कहा नहीं जा सकता।
लोग बार-बार कोशिश करते हैं, पर केवल उसकी याद और ध्यान में ही लगे रहते हैं।

इस पंक्ति का गहरा आध्यात्मिक अर्थ है, जिसे कई जीवन संदर्भों में समझा जा सकता है:

1. ईश्वर की अमूल्यता का वर्णन असंभव है:

“अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ” का अर्थ यह है कि ईश्वर इतना महान, इतना अनमोल है कि उसके गुणों का पूरा वर्णन करना संभव नहीं है। हमारे पास सीमित शब्द हैं, और ईश्वर की महिमा और उसकी अमूल्यता असीमित है। चाहे हम कितनी भी कोशिश कर लें, हम उसकी संपूर्ण महिमा और गुणों को व्यक्त नहीं कर सकते। यह वाक्य हमें यह सिखाता है कि ईश्वर की महिमा को केवल अनुभव किया जा सकता है, उसे शब्दों में पूरी तरह बयां नहीं किया जा सकता।

2. ध्यान और समर्पण का महत्व:

“आखि आखि रहे लिव लाइ” का अर्थ यह है कि लोग बार-बार ईश्वर की महिमा का वर्णन करने की कोशिश करते हैं, लेकिन अंत में वे उसकी याद और ध्यान में ही लीन हो जाते हैं। इसका संदेश यह है कि जब हम ईश्वर की अमूल्यता को समझने की कोशिश करते हैं, तो हमें महसूस होता है कि उसकी संपूर्णता को जानना संभव नहीं है। इसके बजाय, हमें ईश्वर की महिमा में ध्यान लगाकर और उसकी सेवा में समर्पित होकर जीवन बिताना चाहिए। ध्यान (लिव) ही वह मार्ग है जिससे हम ईश्वर के अनंत गुणों को अनुभव कर सकते हैं।

3. असीम ज्ञान और सीमित मानव समझ:

इस पंक्ति से यह भी स्पष्ट होता है कि मानव की समझ और ज्ञान सीमित हैं। हम अपनी बुद्धि और अनुभवों से ईश्वर की कुछ झलक पा सकते हैं, लेकिन उसकी वास्तविकता को पूरी तरह समझना संभव नहीं है। जितना अधिक हम उसे समझने की कोशिश करते हैं, उतना ही हमें उसकी असीमता का एहसास होता है। इसलिए, हमें प्रयास करते रहना चाहिए लेकिन उसके साथ विनम्रता और समर्पण भी जरूरी है।

4. आध्यात्मिक यात्रा का उद्देश्य:

यह शबद हमें यह सिखाता है कि ईश्वर को पूरी तरह जानने की कोशिश करना ही हमारे जीवन का अंतिम उद्देश्य नहीं है। बल्कि, ईश्वर के प्रति प्रेम, समर्पण, और ध्यान (लिव) में लीन होना अधिक महत्वपूर्ण है। उसकी महिमा को जानने की कोशिश करना एक अनवरत आध्यात्मिक यात्रा है, लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि यह यात्रा अंतहीन है।

5. ध्यान में शांति और संतोष:

जब हम बार-बार ईश्वर की महिमा को वर्णित करने की कोशिश करते हैं और उसकी अमूल्यता को समझने में असफल होते हैं, तब हमें शांति और संतोष ध्यान में मिलता है। ध्यान और प्रेम में लीन होकर हम ईश्वर के करीब पहुँच सकते हैं। यह हमें आंतरिक शांति, संतोष और आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।

6. विनम्रता और आत्मसमर्पण:

यह पंक्ति यह भी बताती है कि ईश्वर की अमूल्यता को स्वीकार करने से हमारे भीतर विनम्रता आती है। जब हम समझते हैं कि हम ईश्वर को पूरी तरह नहीं समझ सकते, तो हम उसके सामने और अधिक समर्पित हो जाते हैं। यह विनम्रता और आत्मसमर्पण ही हमें ईश्वर के करीब लाता है।

इस प्रकार, “अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥ आखि आखि रहे लिव लाइ ॥” हमें यह सिखाता है कि ईश्वर की अमूल्यता को शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। हालांकि लोग उसकी महिमा का वर्णन करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे अंततः उसकी याद और ध्यान में ही लीन हो जाते हैं। ध्यान, प्रेम, और समर्पण ही ईश्वर के अनुभव और उसके करीब जाने का मार्ग है।

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