गुरुकुल

वडभागीआ सोहागणी जिन्हा गुरमुखि मिलिआ हरि राइ ॥
अंतरि जोति परगासीआ नानक नामि समाइ ॥

 

सन्तोष मिश्रा जी के यहाँ पहला लड़का हुआ तो पत्नी ने कहा, “बच्चे को गुरुकुल में शिक्षा दिलवाते है, मैं सोच रही हूँ कि गुरुकुल में शिक्षा देकर उसे धर्म ज्ञाता पंडित योगी बनाऊंगी।”

सन्तोष जी ने पत्नी से कहा, “पाण्डित्य पूर्ण योगी बना कर इसे भूखा मारना है क्या !! मैं इसे बड़ा अफसर बनाऊंगा ताकि दुनिया में एक कामयाबी वाला इंसान बने।।”

संतोष जी सरकारी बैंक में मैनेजर के पद पर थे ! पत्नी धार्मिक थी और इच्छा थी कि बेटा पाण्डित्य पूर्ण योगी बने, लेकिन सन्तोष जी नहीं माने।

दूसरा लड़का हुआ पत्नी ने जिद की, सन्तोष जी इस बार भी ना माने, तीसरा लड़का हुआ पत्नी ने फिर जिद की, लेकिन सन्तोष जी एक ही रट लगाते रहे, “कहां से खाएगा, कैसे गुजारा करेगा, और नही माने।” चौथा लड़का हुआ, इस बार पत्नी की जिद के आगे सन्तोष जी हार गए , और अंततः उन्होंने गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा दिलवाने के लिए वही भेज ही दिया ।

अब धीरे धीरे समय का चक्र घूमा, अब वो दिन आ गया जब बच्चे अपने पैरों पे मजबूती से खड़े हो गए, पहले तीनों लड़कों ने मेहनत करके सरकारी नौकरियां हासिल कर ली, पहला डॉक्टर, दूसरा बैंक मैनेजर, तीसरा एक गोवरमेंट कंपनी मेें जॉब करने लगा।

एक दिन की बात है सन्तोष जी पत्नी से बोले, “अरे भाग्यवान ! देखा, मेरे तीनो होनहार बेटे सरकारी पदों पे हो गए न, अच्छी कमाई भी कर रहे है, तीनो की जिंदगी तो अब सेट हो गयी, कोई चिंता नही रहेगी अब इन तीनो को। लेकिन अफसोस मेरा सबसे छोटा बेटा गुुुरुकुल का आचार्य बन कर घर घर यज्ञ करवा रहा है, प्रवचन कर रहा है ! जितना वह छ: महीने में कमाएगा उतना मेरा एक बेटा एक महीने में कमा लेगा, अरे भाग्यवान ! तुमने अपनी मर्जी करवा कर बड़ी गलती की , तुम्हे भी आज इस पर पश्चाताप होता होगा , मुझे मालूम है, लेकिन तुम बोलती नही हो”।।

पत्नी ने कहा, “हम मे से कोई एक गलत है, और ये आज दूध का दूध पानी का पानी हो जाना चाहिए, चलो अब हम परीक्षा ले लेते है चारों की, कौन गलत है कौन सही पता चल जाएगा ।।”

दूसरे दिन शाम के वक्त पत्नी ने बाल बिखरा , अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर और चेहरे पर एक दो नाखून के निशान मारकर आंगन मे बैठ गई और पतिदेव को अंदर कमरे मे छिपा दिया ..!!

बड़ा बेटा आया पूछा, “मम्मी क्या हुआ ?”

माँ ने जवाब दिया, “तुम्हारे पापा ने मारा है !”

पहला बेटा :- “बुड्ढा, सठिया गया है क्या ? कहां है ? बुलाओतो जरा।।”

माँ ने कहा, “नही है , बाहर गए है !”

पहला बेटा – “आए तो मुझे बुला लेना , मैं कमरे मे हूँ, मेरा खाना निकाल दो मुझे भूख लगी है !”

ये कहकर कमरे मे चला गया।

दूसरा बेटा आया पूछा तो माँ ने वही जवाब दिया,

दूसरा बेटा : “क्या पगला गए है इस बुढ़ापे मे , उनसे कहना चुपचाप अपनी बची खुची गुजार ले, आए तो मुझे बुला लेना और मैं खाना खाकर आया हूँ सोना है मुझे, अगर आये तो मुझे अभी मत जगाना, सुबह खबर लेता हूँ उनकी ।।”,

ये कह कर वो भी अपने कमरे मे चला गया ।

तीसरा बेटा आया पूछा तो आगबबूला हो गया, “इस बुढ़ापे मे अपनी औलादो के हाथ से जूते खाने वाले काम कर रहे है ! इसने तो मर्यादा की सारी हदें पार कर दीं।”

यह कर वह भी अपने कमरे मे चला गया ।।]

संतोष जी अंदर बैठे बैठे सारी बाते सुन रहे थे, ऐसा लग रहा था कि जैसे उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो, और उसके आंसू नही रुक रहे थे, किस तरह इन बच्चो के लिए दिन रात मेहनत करके पाला पोसा, उनको बड़ा आदमी बनाया, जिसकी तमाम गलतियों को मैंने नजरअंदाज करके आगे बढ़ाया ! और ये ऐसा बर्ताव , अब तो बर्दाश्त ही नहीं हो रहा…..

इतने मे चौथा बेटा घर मे ओम् ओम् ओम् करते हुए अंदर आया।।

माँ को इस हाल मे देखा तो भागते हुए आया, पूछा, तो माँ ने अब गंदे गंदे शब्दो मे अपने पति को बुरा भला कहा तो चौथे बेटे ने माँ का हाथ पकड़ कर समझाया कि “माँ आप पिताजी की प्राण हो, वो आपके बिना अधूरे हैं।

अगर पिता जी ने आपको कुछ कह दिया तो क्या हुआ, मैंने पिता जी को आज तक आपसे बत्तमीजी से बात करते हुए नही देखा, वो आपसे हमेशा प्रेम से बाते करते थे, जिन्होंने इतनी सारी खुशिया दी, आज नाराजगी से पेश आए तो क्या हुआ, हो सकता है आज उनको किसी बात को लेकर चिंता रही हो, हो ना हो माँ ! आप से कही गलती जरूर हुई होगी, अरे माँ ! पिता जी आपका कितना ख्याल रखते है, याद है न आपको, छ: साल पहले जब आपका स्वास्थ्य ठीक नही था, तो पिता जी ने कितने दिनों तक आपकी सेवा कीे थी, वही भोजन बनाते थे, घर का सारा काम करते थे, कपड़े धोते थे, तब आपने फोन करके मुझे सूचना दी थी कि मैं संसार की सबसे भाग्यशाली औरत हूँ, तुम्हारे पिता जी मेरा बहुत ख्याल करते हैं।”

इतना सुनते ही बेटे को गले लगाकर फफक फफक कर रोने लगी, सन्तोष जी आँखो मे आंसू लिए सामने खड़े थे।

“अब बताइये क्या कहेंगे आप मेरे फैसले पर”, पत्नी ने संतोष जी से पूछा।

सन्तोष जी ने तुरन्त अपने बेटे को गले लगा लिया, !

सन्तोष जी की धर्मपत्नी ने कहा, *”ये शिक्षा इंग्लिश मीडियम स्कूलो मे नही दी जाती। माँ-बाप से कैसे पेश आना है, कैसे उनकी सेवा करनी है। ये तो गुरुकुल ही सिखा सकते हैं जहाँ वेद गीता रामायण जैसे ग्रन्थ पढाये जाते हैैं संस्कार दिये जाते हैं।

अब सन्तोष जी को एहसास हुआ- जिन बच्चो पर लाखो खर्च करके डिग्रीया दिलाई वे सब जाली निकले , असल में ज्ञानी तो वो सब बच्चे है, जिन्होंने जमीन पर बैठ कर पढ़ा है, मैं कितना बड़ा नासमझ था, फिर दिल से एक आवाज निकलती है, काश मैंने चारो बेटो को गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा दी होती।

गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी॥

उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥

भावार्थ:-(क्योंकि) गुरु, पिता, माता, स्वामी और सुहृद् (मित्र) की वाणी सुनकर प्रसन्न मन से उसे अच्छी समझकर करना (मानना) चाहिए। उचित-अनुचित का विचार करने से धर्म जाता है और सिर पर पाप का भार चढ़ता है॥

मातृमान पितृमान आचार्यावान् पुरुषो वेद:।।

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