साधु

सतिगुर कीनी दाति मूलि न निखुटई ॥ खावहु भुंचहु सभि गुरमुखि छुटई ॥
अम्रितु नामु निधानु दिता तुसि हरि ॥ नानक सदा अराधि कदे न जांहि मरि ॥

 

एक बार की बात है। एक संत अपने एक शिष्य के साथ किसी नगर की ओर जा रहे थे। रास्ते में चलते-चलते रात हो चली थी और तेज बारिश भी हो रही थी। संत और उनका शिष्य कच्ची सड़क पर चुपचाप चले जा रहे थे। उनके कपड़े भी कीचड़ से लथपथ हो चुके थे। मार्ग में चलते-चलते संत ने अचानक अपने शिष्य से सवाल किया–‘वत्स, क्या तुम बता सकते हो कि वास्तव में सच्चा साधु कौन होता है ?’

संत की बात सुनकर शिष्य सोच में पड़ गया। उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सूझा। उसे मौन देखकर संत ने कहा–‘सच्चा साधु वह नहीं होता, जो अपनी सिद्धियों के प्रभाव से किसी रोगी को ठीक कर दे या पशु-पक्षियों की भाषा समझ ले। सच्चा साधु वह भी नहीं होता, जो अपने घर-परिवार से नाता तोड़ पूरी तरह बैरागी बन गया हो या जिसने मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया हो।’

शिष्य को यह सब सुनकर बहुत आश्चर्य हो रहा था। वह तो इन्हीं गुणों को साधुता के लक्षण मानता था। उसने संत से पूछा–‘गुरुदेव, तो फिर सच्चा साधु किसे कहा जा सकता है ?’

इस पर संत ने कहा–‘वत्स, कल्पना करो कि इस अंधेरी, तूफानी रात में हम जब नगर में पहुँचे और द्वार खटखटाएँ। इस पर चौकीदार हमसे पूछे–‘कौन है ?’ और हम कहें–‘दो साधु।’ ‘इस पर वह कहे–‘मुफ्तखोरों! चलो भागो यहाँ से। न जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं।’ संत के मुख से ऐसी बातें सुनकर शिष्य की हैरानी बढ़ती जा रही थी।

संत ने आगे कहा–‘सोचो, इसी तरह का व्यवहार और जगहों पर भी हो। हमें हर कोई उसी तरह दुत्कारे, अपमानित करे, प्रताड़ित करे। इस पर भी यदि हम नाराज न हों, उनके प्रति जरा-सी भी कटुता हमारे मन में आए और हम उनमें भी प्रभु के ही दर्शन करते रहें, तो समझो कि यही सच्ची साधुता है।

साधु होने का मापदंड है–हर परिस्थिति में समानता और सहजता का व्यवहार।’ इस पर शिष्य ने सवाल किया–‘लेकिन इस तरह का भाव तो एक गृहस्थ में भी हो सकता है। तो क्या वह भी साधु है ?’

संत ने मुस्कराते हुए कहा–‘बिलकुल है, जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि सिर्फ घर छोड़कर बैरागी हो जाने से ही कोई साधु नहीं हो जाता। साधु वही है, जो साधुता के गुणों को धारण करे। और ऐसा कोई भी कर सकता है।’

 

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