आदि गुरए नमह ॥
जुगादि गुरए नमह ॥
सतिगुरए नमह ॥
स्री गुरदेवए नमह ॥
समर्थ गुरु रामदास जी का एक शिष्य था, जो भिक्षा लेने के लिए गांव में गया और घर-घर भिक्षा की मांग करने लगा।
समर्थ गुरु की जय ! भिक्षाम् देहि
समर्थ गुरु की जय ! भिक्षाम् देहि
, भीतर से जोर से दरवाजा खुला ओर एक बड़ी-बड़ी दाढ़ी वाला तान्त्रिक बाहर निकला और चिल्लाते हुए बोला, मेरे दरवाजे पर आकर किसी और का गुणगान करता है। कौन है ये समर्थ??
शिष्य ने गर्व से कहा- मेरे गुरु समर्थ रामदास जी। जो सर्व समर्थ हैं।
तांत्रिक ने सुना तो क्रोध में आकर बोला कि इतना दुःसाहस कि मेरे दरवाजे पर आकर किसी और का गुणगान करता है तो देखता हूँ कितना सामर्थ है तेरे गुरु में? मेरा शाप है कि तू कल का उगता सूरज नहीं देख पाएगा अर्थात् तेरी मृत्यु हो जाएगी।
शिष्य ने सुना तो देखता ही रह गया और आस-पास के भी गांव वाले कहने लगे कि इस तांत्रिक का दिया हुआ शाप कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। बेचार युवा अवस्था में ही अपनी जान गंवा बैठा।शिष्य उदास चेहरा लिए वापस आश्रम की ओर चल दिया और सोचता जा रहा था कि आज मेरा अंतिम दिन है लगता है मेरा समय खत्म हो गया है।
आश्रम में जैसे ही पहुँचा। समर्थ गुरु रामदास जी हँसते हुए बोले – ले आया भिक्षा?
बेचारा शिष्य क्या बोले।
गुरुदेव हँसते हुए बोले कि भिक्षा ले आया।
शिष्य- जी गुरुदेव! भिक्षा में अपनी मौत ले आया और सारी घटना सुना दी। इसके बाद एक कोने में चुप-चाप बैठ गया।
गुरुदेव बोले अच्छा चल भोजन कर ले।
शिष्य- गुरुदेव! आप भोजन करने की बात कर रहे है और यहाँ मेरा प्राण सूख रहा है। भोजन तो दूर एक दाना भी मुँह में न जा पाएगा।
गुरुदेव बोले– अभी तो पूरी रात बाकी है। अभी से चिंता क्यों कर रहा है। चल ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा। यह कहकर गुरुदेव भोजन करने चले गए।
फिर सोने की बारी आई तब गुरुदेव शिष्य को बुलाकर बोले- हमारे चरण दबा दे।
शिष्य- मायूस होकर बोला! जी गुरुदेव जो कुछ क्षण बचा है जीवन के उस क्षण में आपकी सेवा कर ही प्राण त्याग करूँ यही अच्छा होगा। फिर गुरुदेव के चरण दबाने की सेवा शुरू की।
गुरुदेव बोले- चाहे जो भी हो, चरण छोड़ कर मत जाना कहीं।
शिष्य- जी गुरुदेव, कहीं नही जाऊँगा।
गुरुदेव- अपने शब्दों को तीन बार दोहराओ कि चरण मत छोड़ना, चाहे जो हो जाए।
यह कह कर गुरुदेव सो गए।
शिष्य पूरी भावना से चरण दबाने लगा।
रात्रि का पहला पहर बीतने को था अब तांत्रिक ने अपने शाप को पूरा करने के लिए एक देवी को भेजा जो धन से भरी थी सोने-चांदी, हीरे-मोती से भरी।
शिष्य चरण दबा रहा था। तभी दरवाजे पर वो देवी प्रकट हुई और कहने लगी-कि इधर आओ और ये सोने-चांदी से भरा ये ले लो। शिष्य भी बोला- जी मुझे लेने में कोई परेशानी नहीं है, लेकिन क्षमा करें! मैं वहाँ पर आकर नहीं ले सकता हूं। अगर आपको देना ही है तो यहाँ पर आकर दे दीजिए।
देवी सुनी तो कहने लगी कि नहीं, नहीं, तुम्हे यहाँ आना होगा। देखो कितना सारा है। शिष्य बोला– नहीं। अगर देना है तो यहीं आ जाइए।
तांत्रिक ने अपना पहला पासा असफल देख दूसरा पासा फेंका। रात्रि का दूसरा पहर बीतने को था तब तांत्रिक ने उसी औरत को शिष्य की माँ की रूप बनाकर भेजा। शिष्य गुरु के चरण दबा रहा था तभी दरवाजे पर आवाज आई – बेटा! तुम कैसे हो?
शिष्य ने अपनी माँ को देखा तो सोचने लगा अच्छा हुआ जो माँ के दर्शन हो गए मरते वक्त माँ से भी मिल लेता हूं।
वह औरत जो माँ के रूप धारण की थी बोली- आओ बेटा गले से लगा लो! बहुत दिन हो गए तुमसे मिले।
शिष्य बोला- क्षमा करना मां! लेकिन मैं वहाँ नहीं आ सकता क्योंकि अभी गुरुचरण की सेवा कर रहा हूँ। मुझे भी आपसे गले लगना है इसलिए आप यहीं आ जाओ। जब उस औरत ने देखी कि चाल काम नहीं आ रही है तो चली गई।
रात्रि का तीसरा पहर बीता और इस बार तांत्रिक ने यमदूत रूप वाला राक्षस भेजा।
राक्षस पहुँच कर शिष्य से बोला कि चल तुझे लेने आया हूँ। तेरी मृत्यु आ गई है। उठ और चल…
शिष्य भी झल्लाकर बोला- काल हो या महाकाल मैं नहीं आने वाला ! अगर मेरी मृत्यु आई है तो यही आकर ले जाओ मुझे। लेकिन गुरु के चरण नहीं छोडूंगा! बस।
फिर राक्षस भी चला गया।
सुबह हुई चिड़ियां अपने घोसले से निकलकर चहचहाने लगी। सूरज भी उदय हो गया।
गुरुदेव रामदास जी नींद से उठे और बोले कि- सुबह हो गई?
शिष्य बोला– जी! गुरुदेव सुबह हो गई
गुरुदेव- अरे! तुम्हारी तो मृत्यु होने वाली थी न, तुमने ही तो कहा था कि तांत्रिक का शाप कभी व्यर्थ नही जाता। लेकिन तुम तो जीवित हो।
शिष्य भी सोचते हुए बोला- जी गुरुदेव, लग तो रहा हूँ कि जीवित ही हूँ। फिर रात्रि की सारी घटना याद की। फिर समझ में आई कि गुरुदेव ने क्यों कहा था कि चाहे जो भी हो जाए चरण मत छोड़ना। शिष्य गुरुदेव के चरण पकड़कर खूब रोने लगा। बार-बार यही कह रहा था- जिसके सर पर आप जैसे गुरु का हाथ हो, उसे काल भी कुछ नहीं कर सकता है।
सीख
गुरु की आज्ञा पर जो शिष्य चलता है उससे तो स्वयं मौत भी आने से एक बार नहीं अनेक बार सोचती है। तभी तो कहा गया है-
करता करे न कर सके, गुरु कर सो जान।
तीन-लोक नौ, खण्ड में गुरु से बड़ा न कोय।
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गुरु की आज्ञा सिर पर ले।च ले स्वयं प्रभु राम गुरु की आज्ञा पर चले। पूर्णसद्गुरु में ही सामर्थ्य है कि वो प्रकृति के नियम को बदल सकते हैं, जो ईश्वर भी नहीं बदल सकते, क्योंकि ईश्वर भी प्रकृति के नियम से बंधे होते हैं लेकिन पूर्णसद्गुरु नहीं।