बिरयानी

कली काल महि रविआ रामु ॥
घटि घटि पूरि रहिआ प्रभु एको गुरमुखि परगटु हरि हरि नामु ॥

 

एक भंडारा हो रहा है। यजमान ने बड़े इत्मीनान से आमंत्रितों को बुलाया।

आपसे कहा पुराने बासमती चावल है। शानदार पुलाव बनाया गया। पुलाव की खुशबू से आलम महक उठा। सब लोग ने बड़े चाव से पहला निवाला उठाया ही था….

खाना बनाने वाले महाराज ने बाहर आ कर कहा, एक सफेद पत्थर का टुकड़ा पुलाव में गिर गया मेरे हाथ से। चावल के साइज का है तो मै ढूंढ नहीं पाया। किसकी थाली में जाएगा पता नहीं।

दांत के नीचे आया तो तकलीफ ना हो इसलिए बता रहा हूं।

अब पुलाव का स्वाद अच्छा है।

मेवे से भरपूर, अच्छी सामग्री से बना है।

शुद्ध घी के सुगंध से उसमे चार चांद लग गए।

पर खाने का आनंद जाता रहा।

हर निवाले पर स्वाद के और ध्यान ना जाते हुए धीरे धीरे कहा रहे है।

बूढ़े बाबा तो पुलाव लेने से मना ही कर रहे है। अपने ही दांत के नीचे आ गया पत्थर तो क्या करे।

अब सब के खाने की मज़ा चली गई।

हरेक जना अपने खाने की ओर ही ध्यान देते रहा। बातचीत बंद थी और कोई भी जोक करने के मूड में नहीं था। सबने खाना आखरी निवाले तक खाया और वो पत्थर अपने मुंह में नहीं आया इस बात के लिए गहरी सांस ली। हाथ धोते वक्त किसी ने नोटिस किया की पत्थर किसी के मुंह में आया ही नहीं।

महाराज को पूछा तो वो बोला, “बहुत से निकाल लिए थे बाई ने, एकाध कड़छी घूमते वक्त बजा ऐसा लगा मुझे। बाद में निकलता तो आप लोग ही कोप का भाजन बना देते मुझे।”

सब एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। एकदम स्वादिष्ट बने पुलाव की किसी ने एक शब्द से तारीफ नहीं की।सब कैसे कहते कहते थक गए।

क्यू की निवाला खाने की सहजता चली गई।

इतना ध्यान पूर्वक खाने की वजह से खाना खाने की सहजता चली गई और खाना खाना कष्टप्रद हो गया।

तो दोस्तो, कहने का तात्पर्य ये है कि कोरोना वायरस की वजह से अपनी अवस्था पुलाव के कंकर जैसी हो गई है।

किसके दांत के नीचे वो पत्थर आएगा पता नहीं।

“जीने की सहजता” गई।

मदद करने वाला हाथ भी कहीं हमे बीमार ना कर दे इस शंका में जी रहे है हम।

दूधवाला, सब्जी वाला, किराना वाला हमे सामान के साथ और क्या थमा दे इस डर से त्रस्त हो गए है।

पता नहीं कब तक चलेगा, पर ” जीने की सहजता” कितनी महत्वपूर्ण है ये अब समझ आया हमारे।

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