अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥ आखि आखि रहे लिव लाइ ॥

अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥ आखि आखि रहे लिव लाइ ॥

 

ईश्वर की अमूल्यता को कहा नहीं जा सकता।
लोग बार-बार कोशिश करते हैं, पर केवल उसकी याद और ध्यान में ही लगे रहते हैं।

इस पंक्ति का गहरा आध्यात्मिक अर्थ है, जिसे कई जीवन संदर्भों में समझा जा सकता है:

1. ईश्वर की अमूल्यता का वर्णन असंभव है:

“अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ” का अर्थ यह है कि ईश्वर इतना महान, इतना अनमोल है कि उसके गुणों का पूरा वर्णन करना संभव नहीं है। हमारे पास सीमित शब्द हैं, और ईश्वर की महिमा और उसकी अमूल्यता असीमित है। चाहे हम कितनी भी कोशिश कर लें, हम उसकी संपूर्ण महिमा और गुणों को व्यक्त नहीं कर सकते। यह वाक्य हमें यह सिखाता है कि ईश्वर की महिमा को केवल अनुभव किया जा सकता है, उसे शब्दों में पूरी तरह बयां नहीं किया जा सकता।

2. ध्यान और समर्पण का महत्व:

“आखि आखि रहे लिव लाइ” का अर्थ यह है कि लोग बार-बार ईश्वर की महिमा का वर्णन करने की कोशिश करते हैं, लेकिन अंत में वे उसकी याद और ध्यान में ही लीन हो जाते हैं। इसका संदेश यह है कि जब हम ईश्वर की अमूल्यता को समझने की कोशिश करते हैं, तो हमें महसूस होता है कि उसकी संपूर्णता को जानना संभव नहीं है। इसके बजाय, हमें ईश्वर की महिमा में ध्यान लगाकर और उसकी सेवा में समर्पित होकर जीवन बिताना चाहिए। ध्यान (लिव) ही वह मार्ग है जिससे हम ईश्वर के अनंत गुणों को अनुभव कर सकते हैं।

3. असीम ज्ञान और सीमित मानव समझ:

इस पंक्ति से यह भी स्पष्ट होता है कि मानव की समझ और ज्ञान सीमित हैं। हम अपनी बुद्धि और अनुभवों से ईश्वर की कुछ झलक पा सकते हैं, लेकिन उसकी वास्तविकता को पूरी तरह समझना संभव नहीं है। जितना अधिक हम उसे समझने की कोशिश करते हैं, उतना ही हमें उसकी असीमता का एहसास होता है। इसलिए, हमें प्रयास करते रहना चाहिए लेकिन उसके साथ विनम्रता और समर्पण भी जरूरी है।

4. आध्यात्मिक यात्रा का उद्देश्य:

यह शबद हमें यह सिखाता है कि ईश्वर को पूरी तरह जानने की कोशिश करना ही हमारे जीवन का अंतिम उद्देश्य नहीं है। बल्कि, ईश्वर के प्रति प्रेम, समर्पण, और ध्यान (लिव) में लीन होना अधिक महत्वपूर्ण है। उसकी महिमा को जानने की कोशिश करना एक अनवरत आध्यात्मिक यात्रा है, लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि यह यात्रा अंतहीन है।

5. ध्यान में शांति और संतोष:

जब हम बार-बार ईश्वर की महिमा को वर्णित करने की कोशिश करते हैं और उसकी अमूल्यता को समझने में असफल होते हैं, तब हमें शांति और संतोष ध्यान में मिलता है। ध्यान और प्रेम में लीन होकर हम ईश्वर के करीब पहुँच सकते हैं। यह हमें आंतरिक शांति, संतोष और आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।

6. विनम्रता और आत्मसमर्पण:

यह पंक्ति यह भी बताती है कि ईश्वर की अमूल्यता को स्वीकार करने से हमारे भीतर विनम्रता आती है। जब हम समझते हैं कि हम ईश्वर को पूरी तरह नहीं समझ सकते, तो हम उसके सामने और अधिक समर्पित हो जाते हैं। यह विनम्रता और आत्मसमर्पण ही हमें ईश्वर के करीब लाता है।

इस प्रकार, “अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥ आखि आखि रहे लिव लाइ ॥” हमें यह सिखाता है कि ईश्वर की अमूल्यता को शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। हालांकि लोग उसकी महिमा का वर्णन करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे अंततः उसकी याद और ध्यान में ही लीन हो जाते हैं। ध्यान, प्रेम, और समर्पण ही ईश्वर के अनुभव और उसके करीब जाने का मार्ग है।

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